Sunday, June 19, 2011

6 DHAALA- PEHLI DHAAL

okपढने से पहले निवेदन - कृपया मुहं हाथ साफ़ करके शुद्ध वस्त्र पहनकर,सरल परिणाम रखकर ( कषाय अदि न रखते हुए) पढ़ें.जिनवाणी को जिनवाणी की तरह ही पढ़ें,ऐसे पढ़ें जैसे की आप शास्त्र पढ़ रहे हों,दोहे याद करने की कोशिश करें,कृपया अनुवाद से ज्यादा दोहे को शब्दों से समझें,शुद्धता का ध्यान रहे,ध्यान रखें कि हम को शादी,ब्याह,उलटे सीधे चुटकुले,कमेंट्स,शारीरिक सामिग्रियाँ तोह बहुत मिल जाती हैं,लेकिन आत्मा कल्याणक कि सामिग्री सिर्फ और सिर्फ सतिशाया पुण्य के उदय से ही मिल सकती है,इसीलिए विनय का ध्यान रखें.
६ ढाला

भूमिका
यह ग्रन्थ श्री दौलत राम जी के द्वारा लिखा हुआ है,हम इस ग्रन्थ को लघु समय सार कह सकते हैं,श्री दौलत राम जी एक गृहस्थ थे,उनके पास विलक्षण प्रतिभा थी,एक हाथ से वेह चित्र बनाते थे,और दुसरे हाथ से लिखा करते थे.यह ग्रन्थ किसी व्यक्ति विशेष की कहानी नहीं है,यह ग्रन्थ हमारी अपनी कहानी है,इस जीव की अपनी कहानी है,इसलिए इसको पढने वालें इससे बोझ समझ कर न पढ़े,मन में ऐसे भाव लायें जैसे की यह हमारी अपनी ही गाथा है,और किसी अन्य की कहानी नहीं है,इसमें जितनी भी दुःख भरी बातें बतायीं हैं,यह हमारा ही पुराना इतिहास है,इसलिए भावों की प्रधानता जरूरी है.

६ ढाला का अर्थ
जिस प्रकार कोई योद्धा शत्रु के बार से बचने के लिए ढाल का प्रयोग करता है,उसी प्रकार यह ६ ढाला,जीव को कर्म रुपी शत्रु से बचाती है,कषय रुपी शत्रुओं से बचाती है,एक ढाल की तरह काम करती है,इस ग्रन्थ के ६ खंड हैं,इसीलिए इस ग्रन्थ को ६ ढाला के रूप से जाना जाता है.

मंगलाचरण   

तीन भुवन में सार,वीतराग विज्ञानता
शिव स्वरुप,शिवकार,नमहू त्रियोग सम्हारिके.

  शब्दार्थ
१.भुवन-लोक
२.सार-उत्तम वस्तु
३.वीतराग-विशेष,राग द्वेष से रहित,शाश्वत और सुख दाई
४.विज्ञान -केवल ज्ञान.
५.शिवस्वरूप -सच्चा आनंद देने वाला.
६.शिव कार -मोक्ष को प्राप्त करने वाला.
७.त्रियोग-मन योग,वचन  योग और काय योग.
८.सम्हारिके-तीनो योगों की एकाग्रता से.( मन गुप्ती,वचन गुप्ती और काय गुप्ती).

भावार्थ
तीनो लोकों में ( उर्ध्व लोक,मध्य लोक और अधो लोक) में अगर कोई उत्तम वस्तु है,सबसे अच्छी वस्तु है तोह वह वीतराग विज्ञान है,विशेष विज्ञानं है,केवल ज्ञान है.विज्ञान तो एक लौकिक भी है,लेकिन वेह इन्द्रियों से आनंद देने वाला है,यह लौकिक विज्ञान तोह तत्वार्थ सूत्र नामक ग्रन्थ के चैप्टर ५ "पुद्गल" में ही समाहित है,लेकिन जो वीतराग विज्ञान है,वीतराग विज्ञानं यानि की राग और द्वेष से दूर.यह वीतराग विज्ञानं ही सच्चे सुख  को (शिव कार) यानि की मोक्ष की प्राप्ति करने वाला है,और शिव स्वरुप है,यानि की सच्चे आनंद को देने वाला है,ऐसे वीतराग विज्ञान को मैं मन,वचन और काय के योग की एकाग्रता से प्रणाम करता हूँ,मन वचन और काय योग का अर्थ है जैसा मन में चल रहा है,वैसा ही वचन में,और वैसा ही तन में,किसी भी प्रकार का किसी के भी प्रति  राग-द्वेष अदि भाव नहीं है.हम इन पंक्तियों को दुसरे अर्थ में ऐसे भी समझ सकते हैं की जब तक हमारे अन्दर मन वचन काय का योग नहीं आएगा,जब तक हम जीव वीतराग विज्ञान को नहीं जान सकते हैं                                    
                                                    पहली ढाल
                                  
                                           ६ ढाला ग्रन्थ को लिखने का उद्देश्य

जे त्रिभुवन में जीव अनंत,सुख चाहें दुःख तै भय्वंत,
ताते दुखहारी सुख कार,कहे सीख गुरु करुना धार.

शब्दार्थ
१.जे-इस
२.त्रिभुवन-तीनो लोकों में.
३.अनंत-जिसका अंत न हो.
४.तै-से
५.भय्वंत-डरते हैं.
६.ताते-इसलिए
७.दुखहारी-दुःख को हरने वाली
७.सुखकार-सुख को देने वाली
७.सीख-सिक्षा
८.गुरु-निर्ग्रन्थ दिगंबर मुनि,सच्चे गुरु
८.करुना-कल्याणक की भावना.

भावार्थ

इस संसार में अनंतानंत जीव है,अनंत जीव राशी,इसका अंत ही नहीं है,चाहे कितने काल बीत जायें,यह संसार कभी खाली नहीं होगा,इन अनंतानंत जीवों में हर जीव सुख चाहता है,कोई भी जीव दुःख नहीं चाहता है,चाहे वेह चीटीं हो,निगोदिया जीव हों,या पंचेंद्रिया,सैनी या असैनि पशु हो,मतलब  कोई भी दुःख नहीं चाहता है,क्या हम दुःख चाहते हैं,नहीं न,इसी प्रकार कोई भी जीव दुःख नहीं चाहता,लेकिन यह जीव पुद्गल में सुख खोजने लगता है,बल्कि असली सुख तोह आत्मा स्वाभाव में है,अन्यथा कहीं भी नहीं है,जब जीव को इस सच्चाई का एहसास होता है,यानी की सम्यक्दर्शन होता,जब हम अपने आत्मा स्वाभाव को जानते हैं,तोह हम अत्यंत हर्ष से भर जाते हैं,इसलिए(ताते) हमें यह बात अनंत दुःख का नाश करने वाली (दुःख हारी) और सुख कारी लगती है,और इस आनंद का अनुभव करवाने के लिए हमें सच्चे गुरु,निर्ग्रन्थ गुरु शिक्षा देते हैं,सीख देते हैं,वेह सीख क्या है हम  उसे अगले दोहे में समझेंगे..



.गुरु की सीख(उपदेश)  और संसार में भ्रमण का कारण
ताहि सुन भवि मन थिर आन,जो चाहो अपना  कल्याण,
मोह महामद पियो अनादि,भूल आपको भरमत  वादी.
शब्दार्थ
१.ताहि-गुरु की उस शिक्षा को
२,भवि-हे bhavya
३.थिर-स्थिर
४.आन-करके
५.जो-अगर
६.कल्याण-अपना हित,अपना भला,आत्मा का  हित.
७.मोह-पुद्गल के प्रति आसक्ति
८.महा मद - महा मदिरा,मोह रूपी  शराब
९.अनादी-अनंत काल  से
१०.भरमत-भ्रमण कर रहा  है.
११.वादी-व्यर्थ
भावार्थ
हे भव्य(भवि) जीव,गुरु की उस शिक्षा (ताहि) को मन को  स्थिर(थिर) कर के(आन),मन को वश में करके सुन ले,अगर (जो) तू अपना भला,चाहता है,अपना  हित चाहता है(कल्याण) चाहता है,अगर कल्याण नहीं चाहता है तोह मत सुन,और अगर कल्याण  चाहता है तोह गुरु के उपदेशों को सुन,जो की यह है "इस जीव ने (हमने) अनंत काल से  मोह रुपी-महा मदिरा पी रखी है,एक शराब पी रखी है,जिस प्रकार शराब के नशे में कोई  शराबी अपने आप को भूल जाता है,वेह क्या कर रहा है उसे कुछ भी होश नहीं होता है,उसी  प्रकार इस मोह रुपी शराब को इस जीव ने (हमने) अनादि काल से पी राखी है,कोई शराबी का  नशा तोह आज है कल नहीं,लेकिन इस मोह रुपी महा मदिरा का नशा तोह ऐसा चदा हुआ है की  उतर नहीं रहा है,इसलिए यह जीव (हम) अपने आत्मा स्वाभाव को भूलकर (भूल आपको),अनादि  काल से व्यर्थ (वादी) में ही भ्रमण कर रहा है (भरमत अदि),विचरण कर रहा है,यह हमारी  अपनी ही कहानी है,किसी अन्य की नहीं है,हम भी ऐसा ही कर रहे  हैं.
                 ६ ढाला ग्रन्थ की प्रमाणिकता और निगोद में जीव की  दशा.
तास भ्रमण की है बहु कथा,पै   कुछ कहूँ कही  मुनि यथा
काल अनंत निगोद  मंझार,बीत्यो एकेंद्रीय तन धार.
शब्दार्थ
१.तास-उस संसार  में.
२.भ्रमण-भटकना.
३.बहु-बहुत  सारी.
४.पै-मैं (यानी की  कवि)
५.मुनि-निर्ग्रन्थ  मुनि
६.कछु-थोडा सा  ही
७.यथा-वैसा का वैसा,एक  जैसा.
८.निगोद-एक ऐसी साधारण वनस्पति पर्याय  जिसमें एक जीव में अनंत जीव विधमान होता है,यानी की एक जीव की गोद में अनंतानत जीव  होतें हैं.
९.मंझार- चक्कर में फस  के.
भावार्थ-
कवि कह रहे हैं कि इस संसार में तोह  भटकने कि तोह बहुत कहानियां हैं,अनंतानत योनियाँ हैं ,लेकिन कवि इसमें इस कुछ कथाएँ  ही कह पा रहे हैं कवि ने यह बात तोह कह दी की हम मोह-महा मद पिए हैं,लेकिन कवि पे  इस बात का प्रमाण क्या है की यह सच है,इसलिए कवि ने कहा है की "पै कुछ कहूँ कही  मुनि यथा" यानी की कवि ने जो भी कहा है,जितना भी कहा है,वेह सब मुनियों ने वैसा का  वैसा बोला है (यथा) बोला है,अब कवि निगोद के बारे में बता रहे हैं कि इस जीव ने  अनंत काल निगोद में बर्बाद कर दिया,निगोदिया जीव तोह ठसा-ठस भरा हुआ है,एक जीव कि  गोद में अनंतानंत निगोदिया जीव हैं,और मैंने इस निगोद कि दुःख भरी योनी में अनंत  काल बर्बाद कर दिए,आलू में कितने निगोदिया जीव हैं,अगर आलू में मौजूद जीव राइ जितने  हो जायें तोह जम्बू द्वीप भर जाए,और मैं अपने मोह कि वजह से इस निगोद के दुःख को  प्राप्त करता रहा,अनंत काल इस एकेंद्रीय तन के साथ ही व्यतीत कर दिया है,हमें  अचार,पापड़,छोटी-छोटी मिर्ची,कच्चे आम,कच्चे फल,छोटी-छोटी पत्तियों का इस्तेमाल नहीं  करना चाहिए,क्योंकि इसमें अनंत जीव राशी है,हम भी इसी योनी में तोह होते हुए आयें  हैं,इस मनुष्य योनी में कितना समय हुआ होगा,निगोद में तोह अनंत काल बर्बाद किया  है,यह तोह हमारा पुराना पता है.



निगोद के दुःख और स्थावर पर्याय का वर्णन

एक श्वाश में अथदस बार,जन्म्यो मरयो,सहयो दुःख भार
निकसि भूमि जल पावक भयो,पवन प्रत्येक वनस्पति थयो



शब्दार्थ
१.श्वाश -एक सांस में
२.अथदस-१८ बार
३.जन्म्यो-जन्मा
४.मरयो-मरा
५.निकसि-वहां से निकलकर,या उचट कर.
६.भूमि-भूमि कायिक जीव
७.जल-जल्कायिक जीव
८.पावक-अग्नि कायिक जीव
९.भयो-हुआ
१०.पवन-वायु कायिक
११.प्रत्येक वनस्पति-वनस्पति कायिक जीव का एक प्रकार.

भावार्थ
यह जीव (हम) जब निगोदिया जी पर्याय में था,तब एक श्वास में १८ बार मरा और १८ बार मरा,४८ मिनट में ३७७३ श्वाश होती हैं,यानि की यह जीव ६७९१४ बार मरा और ६७९१४ बार जिया,हम सब जानते हैं कि मरने और जीने कि कितनी वेदना होती है,और यह जीव इतनी बार जन्मा और मरा,किसी कषाय कि मंदता से जब यह जीव निगोद से उचट कर (निगोदिया जीव उचट कर ही अपनी निगोदियाँ पर्याय से बाहर आता है),बहार आया,उसके बाद भी उसे भूमि कायिक जीव,अग्नि कायिक,जल कायिक जीव,वायु कायिक जीव और प्रत्येक वनस्पति होना पड़ा,वनस्पति कायिक दो प्रकार के होते हैं-१.साधारण वनस्पति(यह निगोदिया जीव होतें हैं,और इन्हें खाने का बहुत दोष है),२.प्रत्येक वनस्पति (जो जीव ताज़ी खाद्य वस्तुओं में होतें हैं जैसे कि आम,अमरुद,यानी कि सारे भक्ष्य पदार्थ,इनको खाने का दोष नहीं है,क्योंकि कितना भी कर लो बच नहीं सकते हो),तोह यह जीव(हम) वनस्पति कायिक जीव भी हुआ,और अनेक दुखों को भोगा. हम भी इन्ही योनियों में भटक कर आयें हैं,हम पहले निगोदिया वायु कायिक,जल कायिक जीव ही थे,हमें इतने बड़े पुण्य के उदय से यह मनुष्य योनी मिली है,जो कि सिर्फ सातिशय पुण्य कि वजह से है,और हम सबको इतने मुश्किल से मनुष्य योनी मिली है,हम से ऐसे ही बर्बाद न करें

त्रस पर्याय की दुर्लभता और दुःख

दुर्लभ लहें जो चिंता मणि,त्यों पर्याय लहें त्रस त्रणी,
लट,पिपील,अलि अदि शरीरा,धर धर मरयो सही बहुपीरा.

शब्दार्थ

१.दुर्लभ-बड़ी मुश्किल से मिलने वाली चीज
२.लहें-लगे
३.चिंता मणि-एक अमूल्य मणि,बड़ी दुर्लभता से मिले
४.त्यों-वैसा
५.त्रस - दो,तीन और चार इन्द्रिय जीव.
६.पिपील-चीटीं
७.अलि-भौरां
८.धर-धर-बार बार
९.पीरा-दर्द
१०.बहु-बहुत

भावार्थ

जब यह जीव(हम) स्थावर योनी को पूरी करके,त्रस योनी में आता है,तोह उसे यह त्रस योनी भी चिंतामणि रत्न के समान अमूल्य लगती है,अतुल्य लगती है,क्योंकि त्रस योनी में निगोद और स्थावर की तुलना में तोह कम ही दुःख होता है,चिंतामणि रत्न जिस प्रकार बड़ी दुर्लभता से मिलता है,उसी प्रकार यह जीव त्रस योनी में भी बड़ी मुश्किल से पहुँचता है,यह जीव त्रस योनी में लट (दो इन्द्रिय-स्पर्शन और रसना),चीटीं(पिपील)(तीन इन्द्रिय) और भौरां(अलि)(४ इन्द्रिय) बनता है,और तरह तरह के दुखों को सहन करता है,हम इनके दुखों का अंदाजा अपने आस पास के वातावरण से लगा सकते हैं,यह मक्खी-मच्छर(४ इन्द्रिय)बेचारे कितने दुःख सहन करते हैं,हम लोग अपने स्वार्थ में इतने लीन हो जाते हैं की इन जीवों पे दया ही नहीं करते,यह पर्याय भी इस जीव (हम) को बड़ी दुर्लभता से मिलती है,और चीटीं अदि जीव भी भावी सिद्धात्माएं हैं,अभी मोक्ष नहीं पहुंचें तोह क्या हुआ,कभी तोह मोक्ष जायेंगे,वैसे भी हर जीव सुख चाहता है,तोह हम इन्हें दुखी क्यों रखें,त्रस योनी में यह जीव बार-बार मरता है बार-बार पैदा होता है ( धर-धर मरयो) और बहुत पीड़ा को सहन  करता है(सही बहुपीर),मृत्यु और जनम की पीड़ा सबसे ज्यादा होती है,और इस पीड़ा को हमने भी कभी त्रस योनियों में सहन किया है..लेकिन हम इस बात को भूल रहे हैं क्योंकि हमने मोहरूपी महा मदिरा जो पीलि है.
.


पंचेन्द्रिय तिर्यन्च के दुःख


कबहू पंचेन्द्रिय पशु भयो,मन बिन निपट अज्ञानी थयो,
सिंहादिक सैनी हैं क्रूर,निर्बल पशु हति खाए भूर.

कबहू आप भयो बलहीन,सबलनिकरि खायो अतिदीन,
छेदन,भेदन,भूख,पियास,भार सहन हिम आतप तरस.

बध-बंधन अदिक दुःख घने,कोटि जीव ते जात न भने,
अति संक्लेश भाव जो धरयो,घोर स्वभ्र सागर में परयो.

शब्दार्थ

१.कबहू-कभी
२.थयो-था
३.सैनी-मन-सहित जीव
४.निर्बल-कमजोर
५.हति-मार मार कर के
६.भुर-बहुत
७.सबल निकरि-बलवान पशुओं ने
८.अतिदीन-असमर्थता,कोई दया नहीं करता था
९.छेदन-छेद किये
१०.भेदन-टुकड़े-टुकड़े करना
११.हिम-ठण्ड
१२.आतप-गर्मी
१३.त्रास-भारी दुःख
१४.बध-बंधन-बलि,बंधन,पिटाई,सुताई अदि.
१५.कोटि जीव-करोरों जिव्हाओं से
१६.जात न भने-कहा नहीं जा सकता
१७.संक्लेश-खोटे भाव
१७.घोर स्वभ्र-नरक रुपी गहरा सागर

भावार्थ

यह जीव (हम) त्रस योनी से अपनी आयु को पूरा करके,पंचेन्द्रिय पशु भी बन गया,लेकिन उस पंचेन्द्रिय योनी में भी इस जीव(हम) को मन नहीं मिला,इसलिए ज्ञान को ग्रहन नहीं कर पाया,और घोर दुःख सहे,यह जीव(हम) अज्ञान की वजह से ही तोह संसार में भटकता है,इसी प्रकार यह जीव(हम) ज्ञान के आभाव में दुखी रहा,और कभी यह जीव(हम) मन सहित यानि की सैनी भी हो गया,तोह सिंह जैसा क्रूर पशु ही हुआ,और पता नहीं कितने निर्बल पशु को मार कर खाया...परिणाम स्वरुप यह जीव(हम) अगले भाव में कमजोर पशु हुआ,तोह उसे बलवान पशुओं ने मार-मार कर खाया,और यह जीव असमर्थ था उसे कोई बचने वाला नहीं था,कभी यह जीव(हम) गाय-भैंस अदि हुआ तोह उससे छेदा गया,कसाई ने शरीर के टुकड़े-टुकड़े कर दिया,कभी गधा,घोडा हुआ तोह अत्यंत वजन सेहन किया,कभी इस जीव को किसी मनुष्य ने पाल दिया तोह ठण्ड में,गर्मी में खुला छोड़ दिया ,खाना नहीं दिया और यह जीव अत्यंत दुःख सेहन करता रहा,हम भी तोह जानवरों को पालने लगें हैं,याद करो हम भी ऐसे ही थे,यह हमारी ही कहानी है,कभी यह जीव बकरा अदि हुआ तोह इस जीव को धर्म के नाम पर काट दिया गया,बलि चढ़ा दी गयी,बंधन में रहा,पिंजरे में बंद रहा,और अनंत दुःख सेहन किये,जिसका वर्णन कोटि जिव्हाओं से भी नहीं किया जा सकता,अत्यंत संक्लेषित परिणामों से जब इस जीव ने प्राण को त्यागा,तोह खोटे परिणामों के वजह से नरक रूपी सागर में औंधा होकर (सर के बल) गिर पड़ा.

नरक गति के भीषण दुःख

१.नरक की भूमि और नदी के दुःख

तहां भूमि परसत दुःख इसो,बिच्छु सहस डसे नहीं तिसो
तहां राध-श्रोणित वाहिनी,कृम्कुल्कलित देह-दाहिनी.


२.नरक के सेमर वृक्ष और सर्दी गर्मी के दुःख

सेमर तरु दल-जुट असिपत्र,असि ज्यों देह विदारे तत्र,
मेरु समान लोह-गल जाय,ऐसे शीत-उष्णता थाय.

३.नरक में असुर कुमार देवों द्वारा दिए हुए दुःख और प्यास का दुःख

तिल-तिल करे देह के खंड,असुर भिडावें दुष्ट प्रचंड,
सिन्धु नीर से प्यास न जाए,तोह पण एक न बूंद लहे

४.नरक में भूख और मनुष्य गति का कारण

तीन लोक का नाज जु खाय,मिटे न भूख,कणा न लहाय,
यह दुःख बहु-सागरलौ  सहें,करम-जोगते नर गति लहें.

(इसमें हिंदी के बहुत अक्षर सही प्रिंट नहीं हो पाएं हैं,जैसे की क्रम्कुल्कुलित शब्द हैं,जो टाइप नहीं हो पा रहे  है,अशुद्धि के लिए माफ़ी,क्षमा)


शब्दार्थ

१.तहां-उस नरक की
२.परसत-स्पर्श
३.इसो-होता है
४.सहस-१०००
५.राध-श्रोणित--पीप और खून की
६.वाहिनी-नदी
७.कृम्कुल्कलित-क्षुद्र कीड़ों से भरी हुई
८.दाहिनी-जलाने वाली
९.दल-जुत-पत्ते
१०-असि पत्र-तलवार की धार के सामान पत्ते
११.असि-तलवार
१२.विदारे-तोडना
१३.तत्र-उसी समय
१४.शीत-ठण्ड
१५.उष्णता-गर्मी
१६.थाय-होती है
१७.तिल-तिल-छोटे-छोटे
१८.खंड-टुकड़े
१९.असुर-असुर कुमार देव
२०.भिडावे-लड़ते हैं
२१.प्रचंड-भयानक दुःख
२२.सिन्धु नीर-सागर के पानी
२३.पण-पानी
२४.लहाय-नहीं मिलती हैं
२५.जू-जो
२६.कणा-एक अंश
२७.सागर लौ-बहुत सागर की आयु तक
२८.कर्म जोगते-शुभ कर्म के उदय से

भावार्थ


यह जीव निगोदिया,एकेंद्रीय,त्रस,सैनी और असैनि पंचेंद्रिया योनियों में भटक कर अति संक्लेश भाव रखने के कारण नरक में सर के बल गिरता है,नरक की भूमि (तहां भूमि) को छूने मात्र का इतना कष्ट होता है (परसत दुःख इसो) की एक बार में १००० बिच्छु एक साथ भी काट जायें न तोह,इतना दुःख नहीं होगा,जब यह जीव थोड़ी सी शांति पाने के लिए नदी में जाता है,जो खून और पीप से भरी हुई होती है,तोह उस नदी में मौजूद क्षुद्र-कीड़े उससे खा जाते हैं,और उसकी देह में और ज्यादा पीड़ा उत्पन्न होती है,जब यह जीव इस से परेशांन होकर सेमर  के वृक्षों के नीचे शांति की आस में जा कर बैठता है,तोह तलवार की धार के सामान पत्ते,तलवार की तरह नारकी के शारीर को उसी समय काट देते हैं,नरकों में गर्मी इतनी होती है की सुमेरु पर्वत के समान लोहे का गोला भी पिघल जायेगा,और सर्दी इतनी होती है की सुमेरु पर्वत के सामान लोहे का गोला गल जाएगा,गलन आ जाएगी,गल जाएगा,शुरू के ४ नरकों में भीसन गर्मी और नीचे के तीन नरकों में भीसन सर्दी होती है.यह हमारी अपनी ही कहानी है,हमने भी इतने दुःख सेहन किये और आज कूलर,के बिना रह नहीं पाते हैं,नारकियों का दुःख उस समय और बढ़ जाता है,जब असुर कुमार देव उन्हें भिड़ते रहते हैं,लड़ाते रहते हैं,जिसके कारण यह नारकी जीव उनकी बातों में आ कर एक दुसरे की देह के टुकड़े-टुकड़े कर देते हैं,नरकों में पूरी आयु भोगनी पड़ती है,असुर कुमार देव तीसे नरक से नीचे नहीं जा सकते हैं.प्यास का दुःख तोह इतना है,कि अगर सागर जितना पानी भी उपलब्ध हो जाए तोह भी प्यास नहीं बुझेगी,लेकिन वहां पानी के एक बूंद नहीं है,नरकों में भूख इतनी लगती है,कि तीनों लोकों का नाज अगर उस नारकी (हम) को खाने के लिए दे-दिया जाए तोह भूख नहीं मिटेगी,लेकिन वहां एक कण भी उपलब्ध नहीं है,इस प्रकार यह जीव नरकों के दुःख को बहुत सागर कि आयु तक सेहन करता है,और किसी शुभ कर्म के उदय से मनुष्य गति कि और प्रस्थान करता है,नरक में रहते-रहते जीव के परिणाम सुधर जाते हैं,इसलिए मनुष्य गति मिलती है.

मनुष्य गति के दुःख

गर्भ में और प्रसव जन्य दुःख
जननी उदर वस्यो नवमास,अंग संकुचते पायी त्रास,
निकसत जे दुःख पाए घोर,तिनको कहत न आवे ओर

बचपन,जवानी और बुढ़ापे के दुःख

बालपने में ज्ञान न लहो,तरुण समय तरुणीरत रहो,
अर्ध मृतक सम बुढ़ा पनो,कैसे रूप लखै आपनो

शब्दार्थ
१.जननी-माता
२.उदर-पेट
३.नवमास-नौ महीने
४.संकुचते-सिकुड़े रहे
५.त्रास-दुःख
६.निकसत-निकलने में
७.तिनको-जिनको
८.ओर-अंत
९.लहो-ज्ञान नहीं रहा
१०.तरुण-जवानी
११.तरुणी-जवान स्त्री
१२.अर्ध मृतक-मरे के सामान
१३.रूप-आत्मा स्वाभाव
१४.लखे-पहचाने

भावार्थ

यह जीव किसी शुभ पुण्य के उदय से मनुष्य योनी में भी चला गया,तोह माता के पेट में उससे गंदगी में नौ  महीने तक रहा,उस जीव के शारीर के अंग सिकुड़े रहे..अगर हमें कोई अपने शरीर को सिकोड़ कर ५ मिनट तक रहने की कह दे,तोह हम कराह जायेंगे,लेकिन मनुष्य गति में यह सब दुःख हमने ही सहन किये हैं,और जब प्रसव के समय जब शरीर को माँ के उदर से निकला जाता है,तोह भी बहुत दुःख होता है,कभी कभी तोह हम जैसे दानव लोग गर्भपात करा देते हैं,और उसमें कोई भी शर्म नहीं करते हैं,ध्यान रखें हम भी अपनी माता के पेट में ऐसे ही गंध्गी में पले थे,लेकिन हम अज्ञानी लोग इस बात को भूल जाते हैं,जब शरीर को उदर से निकाला जाता है,तोह पूरा शरीर खून से या गंदगी से सना हुआ होता है,और वेह जीव दुःख का अनुभव करता है...जिन का वर्णन हमारे द्वारा होना असंभव ही है..क्योंकि प्रसव और गर्भ के दुखों का जितना वर्णन करो उतना कम है..अब जैसे तैसे मनुष्य शरीर के साथ बालक हुआ,तोह उसे ज्ञान नहीं दिया गया,बचपन में ही बुरी आदतें सिखा दी गयीं,हिंसा की सामिग्री प्रतीकात्मक ढंग से दे दी गयी,यानी की आत्मा का धर्म का जरा सा भी गया नहीं दिया..जब मनुष्य शरीर और बड़ा हुआ तोह वेह स्त्री के मोह में पड़ा रहा...और व्यर्थ में ही दुखी रहा..न मंदिर गया..न पूजा की..न आत्मा को जाना..और अपनी उम्र का एक बड़ा हिस्सा उसी में बिता दिया...जब वृद्ध हुआ तोह अर्ध मरे के सामान ही रहा...और अर्ध मरण तोह मरण से भी ज्यादा दुःख दाई है...मरे को चार लोग पकड़ते हैं,और अर्ध मरे को २ लोग पकड़ते हैं..सँभालने के लिए....और यह सोचने बाली बात है.की कोई ऐसी अवस्था में आत्मा के ज्ञान की प्राप्ति कैसे कर सकता है.और अपने आनंद स्वरुप की पहचान कैसे कर  सकता है....इस प्रकार इतनी दुर्लभता से मिली मनुष्य योनी ऐसे ही बिता दी,जैनी कुल मिला,स्वस्थ शरीर मिला,अच्छा परिवार,उच्च गोत्र मिला,ज्ञान धारण करने का मौका मिला...जो की सिर्फ सतिश्य पुण्य के उदय से मिलता है...और उसको भी मोह रुपी महा मदिरा के नशे में लीन रह कर  खो दिया ..कोई कल्याण नहीं हुआ.यह हमारी अपनी ही कहानी है.....और इसकी वजह से ही हम दुखी रहे..दुखी हैं..और गुरु की सीख को नहीं  माना तोह दुखी ही रहेंगे...

देव गति/सुर गति के दुःख

कभी अकाम निर्जरा करै,भवनात्रिक में सुर तन धरै
विषय चाह दावानल दह्यो,मरत विलाप कर अति दुःख सहयो.

जो विमानवासी हूँ थाय ,सम्यकदर्शन बिन दुःख पाय,
तहते चय थावर तन धरै,यों परिवर्तन पूरा करै.

भावार्थ
1.अकाम -समता भाव से दुखों को सेः
२. निर्जरा-कर्मों का एक देश झर जाना.
३.भवनात्रिक-व्यंतर,ज्योतिषी और भवन वासी देव.
४.धरै-धारण किया
५.दावानल-भयंकर अग्नि
६.विषय-चाह-पांचो इन्द्रियों की विषय की चाहत
७.विलाप-दुखी होकर
८.सहयो-सेहन किया
९.विमान वासी - जो देव विमानों में निवास करते हैं
१०.हूँ-भी
११.थाय-हुआ
१२.सम्यक दर्शन-आत्मा के सच्चे श्रद्धान
१३.तहते-उस सुर गति से
१४.चय-आयु पूरी करके
१५.थावर-स्थावर योनियाँ.
१६.परिवर्तन-पांच(द्रव्य,क्षेत्र,भाव,काल और भाव) के परिवर्तन

भावार्थ

यह जीव कभी मनुष्य गति में समता भाव से दुखों को सहते हुए अकाम निर्जरा करता है...तोह देव योनियों को प्राप्त करता है,भवन वासी,व्यंतर और ज्योतिषी देवों की योनियों में पुरे जवान शरीर के साथ(देव हम मनुष्यों की तरह बाल रूप में जन नहीं लेते,सीधा जवान होते हैं,और बूढ़े भी नहीं होते हैं)..वहां पहुंचा,वहां उसकी प्रजाति के अन्य देवों ने उसका स्वागत किया और जिनालय जाने को कहा,लेकिन अज्ञान के कारण यह देव योनी का जीव सुन्दर देवियों को देखकर मोहित हो गया और जिनालय बड़ा दुखी हो कर गया..विषय कषायों में ही पड़ा रहा..व्यंतर अदि देवों ने ही तोह सबसे ज्यादा अंध विश्वास फैला रखा है,,यह चमत्कार कर देते हैं..और विविध प्रकार से अज्ञानी मनुष्यों को पोषण करवाते हैं,आज कल जितने भी भूत-प्रेतात्माएं लोगों के सर पे आती हैं...यह सब व्यंतर देव ही हैं...भवन वासी देव भी कभी कभी भरत क्षेत्र में आते हैं,,तोह इस प्रकार जब इन देवों की आयु पूरी होने को आई (उनके गले में पड़ी हुई माला सूखने लगी)तोह यह सुर गति का जीव मरने का विलाप करने लगा और घोर दुखों को सेहन किया........कभी विमानवासी अदि देव भी हुआ ( जो अपनी मर्जी से जिनालय में वंदना करते हैं,ऐसा समझें की भवनात्रिक के देव तोह आनाकानी करते हैं,लेकिन यह देव नहीं करते)..तोह सम्यक दर्शन के बिन दुखी रहा..अपनों से बड़े देवों की आज्ञा माननी पड़ी,जैसे की सौधर्म इन्द्र की आज्ञा से सारे देव पांचो कल्याणक में जाते हैं,इन देवों को अपनों से बड़े देवों को द्वेष नहीं होता है,लेकिन इनके मनन में हीन पने की भावना रहती हैं..जिस कारण अत्यंत दुःख सुर गति  में भी दुखों को पाया,जब यह सुर गति की आयु पूरी करने को आई,तोह इस देव गति के जीव ने अवधि ज्ञान के माध्यम से मनुष्य गति में प्रसव जन्य और गर्भ के दुखों को जान लिया और आयु पूरी होने से पहले ही दुखी रहा...यह सुरगति का जीव जब देव पर्याय की आयु पूरी करता है,तोह मनुष्य गति के दुखों से तोह बच जाता है,लेकिन स्थावर योनियों में वापिस घूम फिर जन्म ले-लेता है,और फूल,अदि बन जाता है...जितने भी सुन्दर-सुन्दर फूल जो नए नए बाजार में मिल रहे हैं..वेह सब पिछले जन्म में देव थे...और इस प्रकार यह जीव पांच परिवर्तनों (द्रव्य,क्षेत्र,भाव,काल और भाव) को पूरा करता है..और जन्म मरण के दुखों को अनादी काल तक सहता रहता.....जिसका कारण हम अगली ढाल में समझेंगे..

हमें मनुष्य योनी मिली है,वाकई में दुर्लभ है,हम इस योनी को यों ही व्यर्थ कर रहे हैं..सच्चे देव शास्त्र और गुरु की शरण है..आप ही बताइए क्या किसी अन्य धर्मों में इस प्रकार से संसार के दुखों का वर्णन है...हम इस मनुष्य योनी का सदुपयोग करें और इस ग्रन्थ के उद्देश्य को समझें.

                              







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