Thursday, July 14, 2011

TEESRI DHAAL-COMPLETE

६ ढाला

तीसरी ढाल

सच्चा सुख और द्विध मोक्ष मार्ग

आतम को हित है सुख,सो सुख आकुलता बिन कहिये
आकुलता शिवमाही न तातैं सो शिवमग लाग्यो चहिये
सम्यक दर्शन ज्ञान चरन शिवमग सो दुविध विचारो
जो सत्यारथ रूप सो निश्चय कारण सो व्यवहारो
शब्दार्थ
१.हित-भला
२.कहिये-कहना चहिये
३.सो-उस सुख को
४.शिव माहि-मोक्ष मार्ग
५.तातैं-इसलिए
६.लाग्यो-लगन होनी चहिये
७.शिवमग-मोक्ष मार्ग
८.दुविध-दो प्रकार से
९.विचारो-बताया गया है
१०.सत्यार्थ-वास्तविक रूप
११.निश्चय-निश्चय मोक्ष मार्ग
१२.व्यवहारो-व्यवहार मोक्ष मार्ग

भावार्थ
हम जीव हैं,आत्मा हैं...हम संसार में सुख चाहते हैं...हमारा भला सुख में ही है...और वह सुख आकुलता (चिंता,मोह,माया,राग,द्वेष) से रहित है..अथार्थ यही सच्चा सुख है..यह शास्वत सुख है...जिसके बाद कभी दुःख नहीं आता है...इन्द्रिय जन्य सुख तोह दुःख के सामान है..परन्तु आकुलता से रहित सुख ही असली या सच्चा सुख है...और यह सच्चे सुख की यानि की आकुलता से रहित अवस्था सिर्फ मोक्ष में ही है..अन्यथा कहीं नहीं हैं..इसलिए अगर यह जीव सुख चाहता है..तोह इस जीव को मोक्ष मार्ग पर चलना चाहिये और चलने की पूरी लगन होनी चाहिये...सम्यक दर्शन,सम्यक ज्ञान और सम्यक चरित्र की एकता ही मोक्ष मार्ग है...जो दो प्रकार से बताई गयी है..पहली निश्चय मोक्ष मार्ग है-जो वास्तविक और सच्चा मोक्ष मार्ग है...और दूसरा व्यवहार मोक्ष मार्ग है..जो निश्चय मोक्ष मार्ग के लिए कारण है,सारभूत है..अत निश्चय मोक्ष मार्ग व्यवहार मोक्ष मार्ग के बिना नहीं मिल सकता है.

निश्चय रत्नत्रय का स्वरुप

पर द्रव्यन्तैं भिन्न आप में रूचि सम्यक्त्व भला है
आप रूप को जानपनो सो सम्यक्ज्ञान कला है
आप रूप में लीन रहे थिर सम्यक्चारित्र सोई
अब व्यवहार मोक्ष मग सुनिए,हेतु नियत को होई.


शब्दार्थ
१.पर-दुसरे
२.द्रव्यन्तैं-द्रव्यों से
३.भिन्न-अलग
४.आप में-आत्मा में
५.सम्यक्त्व-निश्चय सम्यक दर्शन
६.भला-हितकारी
७.जानपनो-जान जाना
८.सो-वह
९.थिर-स्थिर,अटल
१०.सोई-है
११.हेतु-कारण
१२.नियत-निश्चय रत्नत्रय
१३.होई-होने का

भावार्थ
मोक्ष मार्ग को पाने के लिए,आकुलता रहित अवस्था को पाने के लिए पर द्रव्यों से भिन्न,दूसरी वस्तुओं से,परायी वस्तुओं जैसे शरीर,हाथ,बेटा,पत्नी,पति,बहन,माँ,बाप इन सब से खुद को भिन्न मानना,आत्मा को भिन्न मानना निश्चय सम्यक दर्शन है..और आत्मा के चैतन्य,आनंद स्वरुप को जान जाना,दर्शन-ज्ञान स्वरुप को जान जाना ही निश्चय सम्यक्ज्ञान कला है...और आत्मा के रूप को जान कर उसी पे अटल रहना,नहीं डिगना..स्थिर रहना और आनंद मय होना..निश्चय सम्यक्चारित्र का वर्णन है...इन तीनों को एकता ही मोक्ष मार्ग है..जो किसी भी प्रकार की आकुलता,राग द्वेष से रहित है..अगर हमें इस अवस्था को प्राप्त करना है..तोह व्यवहार मोक्ष मार्ग को जानना होगा...जो निश्चय मोक्ष मार्ग का कारण है..जिसके बिना निश्चय रत्नत्रय की प्राप्ति नहीं हो सकती है.


व्यवहार रत्नत्रय का स्वरुप

जीव,अजीव तत्त्व अरु अश्रव बंध अरु संवर जानो
निर्जर मोक्ष कहें जिन तिनको,ज्यों का त्यों सरधानो
है सोई समकित व्यवहारी अब इन रूप बखानो
तिनको सुन सामान्य विशेषें,दिढ़ प्रतीति उर आनो

शब्दार्थ
१.अरु-और
२.जानो-जानना चाहिए
३.ज्यो-जैसे
४.तिनको-सातों तत्वों को
४.त्यों-तैसे
५.सरधानो-श्रद्धान करो
६.सोई-वह
७.समकित-सम्यक दृष्टी
८.व्यवहारी-व्यवहारिक रूप से
९.बखानो-बखान कर रहे हैं
१०.सामान्य-आम रूप से
११.विशेषें-विशेष रूप से
१२.दिढ़-अटल
१३.प्रतीति-विश्वास
१४.उर-मन


भावार्थ
श्री जिनदेव ने सातों तत्व (जीव,अजीव,अश्रव,बंध,संवर,निर्जरा और मोक्ष) का जैसा सच्चा स्वरुप बताया है,जैसा बताया है वैसा ही श्रद्धान करना व्यवहार रत्नत्रय है..इन सातों तत्वों का सच्चा श्रद्धान करने वाला व्यवहार सम्यक्दृष्टि है...अब इन सातों तत्वों के रूप का बखान कर रहे हैं...इनको सातों तत्वों के सच्चे स्वरुप को सामान्य और विशेष दोनों रूप से सुनना चाहिए....और मन में अटल विश्वास रखना चाहिए..अब इन सातों तत्वों का बखान कर रहे हैं.

जीव के भेद,बहिरात्मा और उत्तम अंतरात्मा का स्वरुप

बहिरातम,अंतरात्म,परमातम जीव त्रिधा है
देह जीव को एक गिने बहिरातम तत्व मुधा है
उत्तम,मध्यं जघन्य त्रिविध के अंतरात्म ज्ञानी
द्विध संग बिन शुद्ध-उपयोगी मुनि उत्तम निज ध्यानी

शब्दार्थ
१.बहिरातम-शारीर-आत्मा को एक गिनने वाला
२.त्रिधा-तीन प्रकार
३.देह-शारीर
४.तत्व-मुधा-तत्वों का अजानकर,अज्ञानी और मिथ्यादृष्टि
५.त्रिविध-तीन प्रकार के
६.द्विध-अन्तरंग और बहिरंग परिग्रह
७.शुद्ध-उपयोगी-आत्मा स्वरुप को जानने वाले
८.निज-खुद को,आत्मा स्वरुप को

भावार्थ
जीव जिसका स्वाभाव जानना और देखना है..उसके तीन भेद बताएं हैं...एक बहिरात्मा,दूसरा अंतरात्मा,और तीसरा परमात्मा..बहिरात्मा वह जीव है जो आत्मा विशेष को नहीं मानता है..और अगर मानता भी है...जब भी देह-जीव को एक ही गिनता है,जैसे की शारीर के दर्द में अपना दर्द मानता है,शरीर के काटने में अपना काटना मानता है,शरीर के जलने में अपना जलना,शरीर की गर्मी में अपनी गर्मी..शरीर के आनंद की चीजों में ही अपना आनंद गिनता है..ऐसा श्रद्धान करने वाला जीव बहिरात्मा कहलाता है..और बहिरात्मपना अज्ञानी ही करता है..ज्ञानी नहीं करता है,मिथ्यादृष्टि ही करता है (तत्वों का अजानकर).दूसरा जो अंतरात्मा जीव होता हैं उसके तीन भेद बताएं हैं १.उत्तम २.माध्यम ३.जघन्य...उत्तम अंतरात्मा जीव शुद्ध-उपयोगी ,निर्ग्रन्थ यानि की अन्तरंग और बहिरंग परिग्रह से रहित,मुनिराज होते हैं..जो अपने आत्मा स्वाभाव में लीं रहते हैं.


मध्यम और जघन्य अंतरात्मा,सकल परमात्मा का स्वरुप

मध्यम अंतरात्म हैं जे,देश-व्रती अनागरी
जघन कहे अविरत समदृष्टि,तीनो शिवमगचारी
सकल-निकल परमातम दैविध तिनमें घाति निवारी
श्री अरिहंत सकल परमातम लोकालोक निहारी

शब्दार्थ
१.जे-वह हैं
२.देश-व्रती-श्रावकों के व्रत के धरी
३.अनागरी-मुनि
४.अविरत-बिना व्रत को धारण किये हुए
५.समदृष्टि-सम्यक दृष्टी
६.शिव-मग-चारी-मोक्ष मार्ग पर चलने वाले
७.सकल-स-शरीर
८.निकल-बिना शरीर के
९.दैविध-दो प्रकार के
१०.तिनमे-जिनमें से
११.घाति-४ घातिया कर्म
१२.निवारी-नाश करने वाले
१३.लोकालोक-लोककाश और अलोकाकाश
१४.निहारी-एक समय में देखने वाले


भावार्थ
अंतरात्मा के तीन भेद बताये थे..जिसमें उत्तम अंतरात्मा का वर्णन पिछले श्लोक में किया..अब मध्यम अंतरात्मा के बारे में जानते हैं... देश व्रत-यानि की श्रावक के व्रतों को धारण करने वाले जीव यानि की पंचम गुण-स्थान वर्ती जीव और अनागारी--व्रतों के धारी मुनि-महाराज मध्यम अंतरात्मा हैं..जो की ६-७ गुण स्थान में आते हैं...जघन्य अंतरात्मा अविरत सम्यक-दृष्टी जीव हैं (जिन्होंने सम्यक दर्शन होते हुए भी चरित्र मोहनिय के वश में लेश मात्र भी संयम धारण नहीं किया है)...वह जघन्य अंतरात्मा है..इन्हें अंतरात्मा की श्रेणी में इसलिए रखा गया है क्योंकि अविरत सम्यक दृष्टी जीव का अहम् ख़त्म हो गया होता है...लेकिन कषायों की तीव्रता के कारण व्रत धारण नहीं कर पाते हैं...इसलिए जघन्य अंतरात्मा कहलाते हैं..यह चौथे गुण-स्थान में आते हैं.अब परमात्मा के बारे में जानते हैं..परमात्मा जीव के दो भेद हैं १.सकल और २.निकल ...जिन्होंने४ घातिया कर्मों(DARSHANAVARNIYA ,GYANAVARNIYA ,मोहनिय और वेदनीय) का क्षय कर दिया है.....वह सकल परमात्मा हैं..वह श्री अरिहंत भगवन हैं..जो ४६ गुणों को धारण करते हैं...और लोक और अलोक(विश्व रूप)का अवलोकन कर एक समय में जानते हैं.
                  निकल परमात्मा का स्वरुप और कवि का सन्देश

ज्ञान शरीरी त्रिविध कर्म-मल वर्जित सिद्ध महंता
ते हैं निकल अमल परमातम भोगें शर्म अनंता
बहिरातमता हेय जानि तज अंतरात्म हूजै
परमातम को ध्याय निरंतर,जो नित आनंद पूजै.

शब्दार्थ
१.त्रिविध -तीन प्रकार के
२.मल-गंदगी
३.वर्जित-रहित
४.महंता-पूज्य
५.निकल-अ-शरीरी
६.अमल-निर्मल
७.शर्म-सुख
८.अनंत-जिसका अंत न हो
९.बहिरातमता-देह-जीव को एक गिनना
१०.हेय-त्याज्य
११.तज-त्याग कर
१२.हुजै-होना चाहिए
१३.निरंतर-लगातार
१४.नित-रोज
१५.पूजै-प्राप्त करता है

भावार्थ
सकल परमात्मा जीव के बारे में हमने जान लिया,पिछले श्लोक में..अब निकल परमात्मा वह हैं जिनका ज्ञान ही शरीर हैं...और जिन्होंने तीनों प्रकार के कर्म-मलों(राग-द्वेष,मोह,माया अदि भाव कर्म, मोहिनीय,वेदनीय,आयु अदि द्रव्य कर्म,वैभव धन संपत्ति अदि नो कर्म) को ख़त्म कर्म दिया है...ऐसे सिद्ध भगवन हम सब के लिए पूजनीय हैं..सिद्ध परमेष्ठी ही निकल और मल रहित परमात्मा हैं..जो अनंत काल तक सुख भोगते हैं..और वह सुख आकुलता से रहित है..हमें भी आकुलता रहित पद को पाना चाहिए..इसलिए हमें बहिरातमता,जो सबसे बड़ा आकुलता,राग,द्वेष और दुःख का कारण है..उसे तोह त्यागने योग्य समझ कर त्यागना चाहिए...और अंतरात्मा बनना चाहिए..और परमात्मा की ओर लक्ष्य करना चाहिए ..जो जीव ऐसा श्रद्धान करते हैं..वह रोज आनंद को प्राप्त करते हैं..और एक दिन परमात्मा के पद पर विराजित हो जाते हैं



६ ढाला
तीसरी ढाल
अजीव,धर्म और अधर्म द्रव्य का स्वरुप
चेतनता बिन सो अजीव है,पंच भेद ताके हैं
पुद्गल पंच वरन-रस गंध दो,फरस वसु जाके हैं
जिय पुद्गल को चलन सहाई,धर्म द्रव्य अनुरूपी
तिष्ठत होय अधर्म सहाई,जिन बिन मूर्ती निरूपि
शब्दार्थ
१.बिन-नहीं
२.अजीव-जिसका स्वाभाव जानना और देखना नहीं है
३.ताके-जिसके
४.वरन-वर्ण
५.रस-स्वाद
६.फरस-स्पर्श
७.वसु-आठ
९.जिय-जीव
१०.सहाई-सहायक होता है
११.अनुरूपी-अमूर्तिक
१२.तिष्ठत-बैठने में
१३.जिन-श्री जिनेन्द्र भगवान
१४.बिन मूर्ती-अमूर्तिक
१५.निरूपि-बिना रूप का

भावार्थ
जिस द्रव्य में चेतनता नहीं है,जानने और देखने की शक्ति नहीं है वह अजीव द्रव्य है..और अजीव तत्व है....यह अजीव द्रव्य पांच प्रकार का बताया गया है,जिसमें से पहला भेद "पुद्गल" है..पुद्गल वह है जिसमें पांच प्रकार के वर्ण(कृष्ण,नील,रक्त,पित्त और शुक्ल),पांच प्रकार के रस (टिकता,कटुका,कषैला,अम्ल और मधुरा),दो प्रकार की गंध (सुगंध और दुर्गन्ध),और आठ प्रकार के स्पर्श(कठोर,कोमल,गुरु,लघु,शीत,उष्ण,स्निघ्द और रुक्ष) पाए जाते हैं.दूसरा भेद धर्म द्रव्य है...धर्म द्रव्य वह है जो जीव और पुद्गल को चलने में सहाई होता है..यह द्रव्य अमूर्तिक है...तथा तीसरा भेद अधर्म द्रव्य है..जो जीव और पुद्गल को एक ही जगह रोके रहता है......श्री जिनेन्द्र देव ने इस अधर्म द्रव्य को अमूर्तिक और बिना रूप का बताया है..इसका यथार्थ विश्वास(श्रद्धां) करना चाहिए.

अजीव द्रव्य के चौथे और पांचवे भेद के बारे में अगले श्लोक में जानेंगे.

द्रव्य और तत्व में अंतर यह है की "अगर हमसे पुछा जाए की इस पोस्ट को पढने वाले जीव द्रव्य कितने हैं तोह जवाब होगा की "एक ,दो तीन,दस,सौ,हजार"..लेकिन पुछा जाए की आत्म तत्व कितने हैं तोह जवाब होगा "एक".



आकाश,काल द्रव्य का वर्णन और आश्रव तत्व का स्वरुप

सकल द्रव्यों का वास जास में सो आकाश पिछानो
नियत वर्तना निशि दिन सों,व्यवहार काल परिमानो
यों अजीव,अब आश्रव सुनिए मन वच काय त्रियोगा
मिथ्या,अविरत अरु कषय,परमाद सहित उपयोगा

शब्दार्थ
१.सकल-सारे
२.जास-जिसमें
३.सों-वह
४.पिछानो-जानना कहिये
५.नियत-निश्चय
६.वर्तना-खुद और दुसरे को पलटाने वाला
७.निशि-रात
८.परिमानो-मन्ना चाहिए
९.यों-इस प्रकार
१०.आश्रव-कर्मों का आत्मा में मिल जाना
११.त्रियोगा-तीनों के योग से
१२.मिथ्या-मिथ्या-दर्शन
१३.अरु-और
१४.अविरत-बिना व्रत धारण किये
१५.कषय-क्रोध,मान,माया,लोभ
१६.परमाद-आलस्य
१७.उपयोगा-प्रवर्ती करना

भावार्थ
जहाँ अन्य द्रव्यों का निवास है...या जीव,अजीव,पुद्गल,धर्म और अधर्म द्रव्यों का निवास जिस द्रव्य में है वह आकाश द्रव्य है..अब सवाल यह आता है की आकाश द्रव्य इतने सारे द्रव्यों को एक साथ कैसे रखता होगा..तोह इसके बारे में कहा गया है की जिस प्रकार "एक कटोरी भर पानी में मिटटी दाल दो,तोह वह भी आ जायेगी,चीनी दाल दो तोह वह भी आ-जाएगी,कांच के टुकड़े ड़ाल दो तोह वह भी समां जायेंगे"उसी प्रकार यह आकाश द्रव्य अन्य सारे द्रव्यों को अपने में समाहित कर लेता है....अब काल द्रव्य के बारे में जानते हैं...काल द्रव्य दो प्रकार से कहा गया है "निश्चय काल" वह है जो अपने परिवर्तन के साथ अन्य द्रव्यों को पलटता है...या जो द्रव्य खुद भी पलटता है और अन्य द्रव्यों को भी पलटने में सहाई होता है..वह निश्चय काल,घडी,घंटा,दिन रात,एक घंटा,आज कल..यह सब व्यवहार काल है..ऐसा जानना चाहिए.इस प्रकार से अजीव तत्व का वर्णन ख़त्म हुआ..अब आश्रव के बारे में जानते हैं...मन-वचन और काय तीनों के योग से मिथ्या-दर्शन(गृहीत और आग्रहित),अविरत (बिना व्रत धारण किये),कषाय(क्रोध,मान,माया और लोभ) तथा प्रमाद(काम,विकार) के साथ आत्मा की प्रवर्ती को आश्रव कहते है. 


आश्रव को त्यागने का उपदेश,और बंध,संवर और निर्जरा तत्व का लक्षण

यह ही आतम को दुःख कारण,तातै इनको तजिए
जीव प्रदेश,बंधें विधिसों,सो बंधन कबहूँ न सजिये
शम,दमतैं जो कर्म न आवें,सो संवर आदरिये
तप बलतैं विधि झरन निर्जरा,ताहि सदा आचारिये

शब्दार्थ
१.यह-आश्रव
२.तातैं-इसलिए
३.तजिए-त्यागिये
४.विधिसों-कर्मों से
५.सो-उस
६.कबहूँ-कभी नहीं
७.सजिये-कभी ग्रहण मत कीजिये
८.शम-कषायों की मंदता
९.दम-इन्द्रियों पे विजय
१०.झरन-झरना
११.ताहि-उस निर्जरा
१२.आचारिये-आचारण करना चाहिए

भावार्थ
यह आश्रव...यानि की मिथ्यादर्शन(राग-द्वेष सहित),बिना व्रत धारण किये,कषायों और प्रमाद के साथ आत्मा में प्रवर्ती करना ही दुःख दाई है...यह ही दुःख को देने वाला है...बाहरी रूप से तोह दुःख का कारण है ही..लेकिन आत्मा में आने के लिए कर्मों का प्रवेश द्वार भी खुलता है..इसलिए इसको त्यागना चाहिए...जब कर्मों का प्रवेश द्वार खुल जाता है...तोह आत्मा के प्रदेशों में कर्म के पुद्गल परमाणु बंध जाते हैं यह ही बंध तत्व HAI...और ऐसे बंधन को कभी भी स्वीकार नहीं करना चाहिए..अगर हम संयम(इन्द्रियों पे विजय) और कषायों पे विजय प्राप्त करते हैं...तोह कर्मों का आना रुक जाता है...और कर्मों के परमाणु नहीं बंधते हैं...यह संवर है..और ऐसे संवर तत्व को ग्रहण करना चाहिए...तपस्या से,सम्यक-तप से कर्मों का एक देश (एक हिस्सा) झर जाना..जिससे आत्मा पे कर्म रुपी बोझ कम होता है..या कर्म हलके पड़ते हैं...वह निर्जरा तत्व है..कर्मों के कम होने से आत्मा का ज्ञान-दर्शन स्वाभाव बढ़ता है..और आकुलता में कमी आती है...ऐसे निर्जरा तत्व का आचरण करना चाहिए.


मोक्ष तत्व का स्वरुप और व्यवहार सम्यक-दर्शन का कारण

सकल कर्मतैं रहित अवस्था,सो शिव थिर सुखकारी
इही विधि जो सरधन तत्वन को,सो समकित व्यवहारी
देव-जिनेन्द्र गुरु परिग्रह बिन धर्म दयाजुत सारो
येहु मान समकित को कारण,अष्ट अंग जुत धारो


शब्दार्थ
१.सकल-सारे कर्म
२.कर्मतैं-कर्मों से
३.शिव-मोक्ष
४.थिर-स्थायी
५.इही-इस तरह से
६.सरधन-श्रद्धान करता है
७.तत्वन को-तत्वों का
८.समकित-सम्यक दृष्टी
९.व्यवहारी-व्यवहार से
१०.जिनेन्द्र-जिन्होंने इन्द्रियों को जीत लिया,१८ दोषों से रहित
११.दयाजुत-दया सहित,अहिंसा धर्म
१२.सारो-कारण
१३.येहू-इन तीनों को.
१४.अष्ट अंग-अष्ट गुणों
१५.धारो-धारण करो
भावार्थ
सारे कर्मों से (भाव कर्म,नो कर्म और द्रव्य कर्म) से रहित अवस्था ही मोक्ष है..जो स्थायी रूप से अनंत सुख को देने वाली है,शाश्वत सुख को देने वाली है..आकुलता रहित सुख को देने वाली है...यह ही मोक्ष तत्व का स्वरुप है..इस तरह से जो जिनेन्द्र देव द्वारा बताये गए सातों के सातों तत्वों का श्रद्धान करता है..वह व्यवहार सम्यक दृष्टी है.....वीतरागी भगवन (१८ दोषों से रहित,राग-द्वेष से रहित)..और अन्तरंग और बहिरंग परिग्रह से रहित वीतरागी गुरु तथा दयामय,अहिंसा मय वीतरागी धर्म..ही सारभूत हैं...सम्यक दर्शन के...अतः इन्ही को सम्यक्त्व होने का कारण मानना चाहिए.....और व्यवहार सम्यक-दर्शन को अष्ट अंग सहित धारण करना चाहिए..
सम्यक दर्शन के २५ दोष और अष्ट गुण

वसुमद टारि निवारी त्रिशठता षट अनायतन त्यागो
शंकादिक वसु दोष बिन,संवेगादिक चित पागो
अष्ट अंग अरु दोष पच्चीसों,तिन संक्षेपहूँ कहिये
बिन जानतें दोष गुणन को,कैसे तजिए गहिये.

शब्दार्थ
१.वसु-आठ
२.मद-अभिमान,घमंड
३.टारि-छोड़ो
४.निवारी-त्याग करो
५.त्रिशठता-तीन मूढ़ता
६.षट-छह
७.अनायतन-जहाँ धर्म नहीं है
८.संवेगादिकसंवेग,प्रशं,अनुकम्पा और आस्तिक्य
९.अरु-और
१०.तिन-इनको
११.कहिये-कह रहे हैं
१२.बिन जानतें-बिना जाने
१३.तजिए-त्याग करे
१४.गहिये-ग्रहण करे

भावार्थ
आकुलता रहित मोक्ष सुख को प्राप्त करने के लिए,सम्यक धारण करना चाहिए...और सम्यक दर्शन को धारण करने के लिए..२५ दोषों का त्याग,और आठ गुणों को ग्रहण करना चाहिए..२५ दोष यह हैं..आठ प्रकार के मद,तीन प्रकार की मूढ़ता,६ प्रकार के अनायतन,शंका अदि आठ दोष..यह कुल मिलकर पच्चीस हैं...इन सबका त्याग करना चाहिए....और संवेग ( संसार से भीरुता),प्रशम(कषायों की मंदता),अनुकम्पा(सारे दुखी जीवों के प्रति दया),आस्तिक्य(स्वर्ग,नरक,आत्मा के अस्तित्व को स्वीकार करना)..इन सब गुणों को प्राप्त करना चाहिए.इन अष्ट अंग और पच्चीस दोहे कर वर्णन संक्षेप में कर रहे हैं..क्योंकि जब तक गुण-अवगुण के बारे में जानेंगे नहीं तब तक उनको ग्रहण करने की और त्यागने की कोई कैसे सोच सकता है.

सम्यक दर्शन के अष्ट अंग

जिन वच में शंका न,धारे वृष,भव सुख भाँछा भाने
मुनि तन मलिन न देख घिनावे,तत्त्व कुतत्व पिछाने
निज गुना अरु पर औगुण ढाके,वा निज धर्म बढावे
कामादिक कर वृषतै चिगते,निज पर को सु दिढ़आवे
धर्मी सो गोवक्ष प्रीती सम कर,जिन धर्म दिपावे
इन गुना ते विपरीत दोष वसु तिनको सतत खिपावें


शब्दार्थ
१.वच-वचन
२.वृष-वीतराग धर्म
३.भांछा-छह
४.भाने-नहीं करना
५.घिनावे-घ्रणा न करना
६.मलिन-गंध
७.तत्व-कुतत्व-सही गलत
८.पिछाने-पहचान करना
९.औगुण-अव गुण
१०.ढाके-ढकना
११.निज धर्म- वीतराग=आत्म धर्म
१२.कामादिक-काम,क्रोध,मान,माया,लोभ,राग,द्वेष अदि
१३.वृषतै-धर्म से
१४.चिगते-भटकते
१५.सु-फिर से
१६.दिढ़आवे -सही रास्ते पे ले आना
१७.गोवक्ष-गाय-बछड़े के सामान प्रीती
१८.सो-से
१९.सम-सामान
२०.दिपावे-प्रभावना करे
२१.वसु-आठ
२२.सतत-हमेशा
२३.खिपावे-दूर रहना चाहिए

भावार्थ
श्री जिनेन्द्र भगवान (वीतरागी,सर्वज्ञ और हितोपदेशी) की वाणी पे शंका नहीं करना निशंकित अंग है..जिन धर्म के अलावा और किसी अन्य धर्म को धारण नहीं करना और जिनेन्द्र भगवान से सांसारिक सुख की चाह न करना निकान्छित अंग है...मूल गुणों का पालन और परिषह सहने वाले..परम त्यागी,तपस्वी मुनि राज के मैले शरीर को देखकर घृणा न करना..और उनकी सेवा के भाव रखना..निर्वचिकित्सा अंग है..और सही और गलत तत्व की पहचान करना अमूढ़दृष्टी अंग है...अपने गुणों को और दुसरे के गुणों को उजागर न करना...बल्कि ढकना..और अपने वीतराग धर्म में वृद्धि करना उपगूहन अंग है..और काम,क्रोध,मान,माया,लोभ,राग.विकार अदि कारों की वजह से अगर खुद धर्म से डिग रहे हैं..तोह संभल जाना और कोई दूसरा डिग रहा है तोह उसे संभाल लेना स्तिथिकरण अंग है...अपने साधर्मी से गाय-बछड़े के सामान प्रीती करना..या प्रीती रखना...वात्सल्य अंग है..और जैन धर्म की प्रभावना ( वीतराग धर्म की प्रभावना करना)..यानि की धार्मिक अनुष्ठानों में भाग लेना...प्रभावना करना...रात्रि भोजन अदि का त्याग करना प्रभावना अंग है.इस प्रकार यह सम्यक दर्शन के अष्ट अंग हैं...और इन अंगों के विपरीत आठ दोष हैं..जिनको हमेशा त्यागना चाहिए..दूर रहना चाहिए.

आठ प्रकार के मद

पिता भूप वा मातुल नृप जो होय,न तो मद ठाने
मद न रूप को,मद न ज्ञान को,धन-बल को मद भाने
तप को मद न मद जु प्रभुता को करै न सो निज जाने
मद धारे तोह यह दोष वसु समकित को मल ठाने.

SHABDARTH
१.भूप-राजा
२.पिता-पित्र पक्ष से
३.मातुल-माँ के पक्ष से
४.ठाने-धारण करे
५.रूप को -शरीर का,सुन्दर काय का
६.भाने-नहीं करना
७.जु-और
८.निज जाने-आत्मा स्वरुप को जानता है
९.न-नहीं
१०.वसु-आठ
११.समकित-सम्यक दर्शन को
१२.मल-मलिन
१३.थाने-कर देते हैं

भावार्थ
आठ प्रकार के मद बताये जा रहे हैं...अगर पित्र पक्ष से या माता के पक्ष से कोई राजा हो,या कोई नृप हो,अमीर हो....तोह इस बात का मद करना जाति कहलाता है..इसे नहीं करना चाहिए..न ही रूप का,यानि की नश्वर शरीर का..पुद्गल काय का मद रूप मद कहलाता है..अपने ज्ञान का मद करना ज्ञान मद,धन-संपत्ति,सम्पदा का मद धन मद..और शरीर की ताकत..और सामर्थ्य का मद.....बल मद कहलाता है..अपनी त्याग-तपस्या-संयम अदि का मद तप मद कहलाता है..और अपनी प्रभुता का,ऐश्वर्य का,अपने प्रभाव का(मेरे बिना यह नहीं हो सकता,वह नहीं हो सकता)..यह मद प्रभुता का मद कहलाता है...जो इन आठों प्रकार के मद को त्यागता है..वह अपने आत्मा स्वरुप को जान सकता है..अन्यथा नहीं..अगर मद को कोई जीव धारण करता है..तोह यह आठ प्रकार के मद सम्बन्धी दोष सम्यक्त्व को मलिन कर देते हैं....अतः ऐसे आठ प्रकार के मद को त्यागो.
                                                  
                                                     ६ अनायतन और तीन मूढ़ता



कुगुरू,कुदेव,कुवृष सेवक की नहीं प्रशंस उचरै है

जिन मुनि जिनश्रुत बिन,कुगुरूदिक तिन्हे न नमन करै है



शब्दार्थ

१.कुगुरू-खोटे गुरु

२.कुदेव-खोटे देवी-देवता

३.कुवृष- खोटा धर्म

४.प्रशंस-प्रशंसा,तारीफ़,अनुमोदना

५.उचरै-उच्चारण करना

६.जिन मुनि-निर्ग्रन्थ मुनि..वीतरागी गुरु

७.जिन श्रुत-सच्चे शास्त्र..जैन शास्त्र(निर्ग्रन्थ गुरु के द्वारा लिखे हुए शास्त्र)

८.बिन-छोडके

९.कुगुरुँदिक-कुगुरु,कुधर्म,कुशास्त्र

१०.तिन्हे-इन तीनों को

११.नमन-नमस्कार

१२.न-नहीं







भावार्थ

अनायतन-जहाँ धर्म नहीं है..यह ६ प्रकार के हैं..कुगुरू की प्रशंसा करना,कुदेवों की प्रशंसा करना..और कुधर्म की प्रशंसा करना...और इन तीनों के सेवक की प्रशंसा करना ६ अनायतन सम्बन्धी सम्यक्त्व के दोष हैं..इसलिए इससे बचना चाहिए..और वीतरागी गुरु..वीतरागी शास्त्र..वीतरागी भगवन के अलावा रागी-द्वेषी..कुदेव,कुधर्म और कुशास्त्र को नमस्कार करना..यह तीन मूढ़ता हैं..अतः इनसे बचना बचना चाहिए..यानि की हमें कुगुरू,कुदेव और कुधर्म और तीनों के सेवकों की प्रशंसा नहीं करनी चाहिए...और कुगुरू,कुदेव..और कुधर्मं को कभी भी नमस्कार नहीं करना चाहिए..अगर नमस्कार कर देते हैं..तोह यह ६ अनायतन और तीन मूढ़ता सम्बंधित दोष सम्यक्त्व को मलिन कर देते हैं.
अविरत सम्यक-दृष्टी की श्रेष्ठता और उदासीनता

दोष रहित,गुण सहित सुधि जे सम्यक दरश सजै है
चारित-मोह वश लेश न संजम,पै सुरनाथ जजे हैं
गेही पै गृह में न रचें ज्यों,जलतें भिन्न कमल है
नगरनारी को प्यार यथा कादे में हेम अमल है.

शब्दार्थ
१.दोष-२५ दोष
२.गुण-८ गुना
३.सुधि-बुद्धिमान पुरुष
४.जे-जो
५.सम्यक-दरश-सम्यक दर्शन
६.सजै-धारण किये हुए हैं
७.चारित-मोह-चरित्र मोहनिया कर्म के उदय से
८.लेश-जरा सा भी नहीं
९.संजम-संयम
१०.पै-तोह भी
११.सुरनाथ-एक-भाव-अवतारी सौधर्म इन्द्र
१२.जजे-पूजा करते हैं..प्रभावना करते हैं
१३.गेही-गृहस्थ
१४.पै-तोह भी
१६.गृह-घर
१७.रचें-लीं नहीं होते
१८.ज्यों-जिस प्रकार
१९.जलतें-पानी से
१२.भिन्न-कमल
१३.नगर-नारी-नगर वधु,वेश्या
१४.यथा-अस्थायी
१६.कादे-कीचड
१७.हेम-सुवर्ण
१८.अमल-निर्मल

भावार्थ
जो जीव २५ दोषों(आठ-मद,६ अनाय्तन,तीन मूढ़ता,८ शंका-अदि दोष) से रहित और अष्ट अंग(निशंकित,निकान्छित,निर्वचिकित्सा,अमूढ़-दृष्टी,उपगूहन,स्तिथिकरण,वात्सल्य और प्रभावना) सहित सम्यक दर्शन को धारण करते हैं..वह बुद्धिमान हैं..क्योंकि ऐसे दुर्लभ सम्यक-दर्शन को धारण करके..अगर उस जीव ने चरित्र मोहिनीय कर्म के वश में जरा भी संयम नहीं पाला है..तोह भी देवों के राजा सौधर्म इन्द्र भी उनकी पूजा करते हैं...पूजा से मतलब है विशेष रूप से प्रभावना करते हैं.गृहस्थी में भी रहते हुए भी घर में रचते नहीं हैं..ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार पानी में कमल रहता है..लेकिन पानी से भिन्न रहता है..जिस प्रकार वेश्या का प्यार सिर्फ दिखावे का का होता है..और जिस प्रकार कीचड में भी सोना निर्मल.बिना मल के रहता है...उसी प्रकार अविरत सम्यक-दृष्टी जीव घर-गृहस्थी में उदासीन हो कर रहता है


सम्यक दर्शन की महिमा और सम्यक दृष्टी का उत्त्पत्ति के स्थान

प्रथम नरक बिन षट भू ज्योतिष,वान,भवन षन्ड नारी
थावर विकलत्रय पशु में नहीं,उपजत संकित धारी
तीनो लोक,तिहु काल माहीं नहीं दर्शन सो सुखकारी
सकल धर्म का मूल यही,इस बिन करनी दुखकारी

शब्दार्थ
१.बिन-छोड़कर
२.षट-छह नरक
३.ज्योतिष-ज्योतिषी देव
४.वान-व्यंतर देव
५.भवन-भवन वासी
६.षन्ड-नपुंसक
७.नारी-औरत
८.थावर-स्थावर जीव
९.विकलत्रय-दो,तीन और ४ इन्द्रिय वाले जीव
१०.पशु-कर्म भूमि का पशु
११.उपजत-शरीर धारण नहीं करता है.
१२.समकित-सम्यक दर्शन की धारण करने वाला
१३.माहि-में
१४.दर्शन-सम्यक दर्शन
१५.सो-सामान
१६.सुखकारी-सुख को देने वाला,दुःख को दूर करने वाला
१७.सकल-सारे धर्मों
१८.मूल-सार

भावार्थ
सम्यक दर्शन को धारण करने वाला जीव..पहले नरक को छोड़कर नीचे के ६ नरकों में शरीर धारण नहीं करता है..ज्योतिषी देव नहीं होता,भवन वासी देव नहीं होता और व्यंतर देव नहीं होता है..यानि की उत्तम देव योनी में उत्त्पन्न होता है...नपुंसक नहीं होता और नारी नहीं होता..स्थावर(एकेंद्रिया) विकल त्रय जीवों में उत्त्पन्न नहीं होता और कर्म भूमियों का पशु नहीं होता है.इसीलिए सम्यक दर्शन..आत्मा के सच्चे श्रद्धान के सामान संसार में तीनो लोक में और तीनो काल में सम्यक दर्शन के सामान कोई सुख को देने वाली नहीं है...अतः यह सारे वीतराग धर्म का मूल है....इस बिन जितनी भी कथनी-करनी हैं वह सब दुख देने वाली हैं.


दर्शन के बिना ज्ञान चरित्र का मिथ्यापना..और कवि का संबोधन.

मोक्ष महल की परथम सीढ़ी या बिन ज्ञान चरित्रा
सम्यकता न लहैं सो दर्शन धरो भव्य पवित्रा
दौल समझ सुन चेत सयाने,काल वृथा मत खोवै
यह नर भव फिर मिलन कठिन है जो सम्यक नहीं होवै.

शब्दार्थ
१.परथम-प्रथम,पहली
२.सीढ़ी-पहला कदम
३.या-इसके बिना
४.ज्ञान,चरित्रा-सम्यक ज्ञान और सम्यक ज्ञान.
५.सो-इसलिए
६.दर्शन-सम्यक दर्शन
७.भव्य-मोक्ष के इच्छुक
८.पवित्रा-पवित्रा दर्शन को
९.समझ-जान ले
१०.सुन-सुन ले
११.चेत-जग जा,बेहोसी से हाथ जा
१२.सयाने-बुद्धिमान
१३.वृथा-व्यर्थ में
१४.खोवै-बर्बाद मत कर
१६.नर भव-यह मनुष्य पर्याय
१७.सम्यक-सम्यक दर्शन

भावार्थ
सम्यक दर्शन मोक्ष महल की प्रथम सीढ़ी है...पहला कदम है..यानी की आकुलता रहित अवस्था को प्राप्त करने के लिए जो पहला पुरुषार्थ है..वह सम्यक दर्शन ही है..और इस सम्यक दर्शन के बिना ज्ञान और चरित्रा में सच्चा पण नहीं रहता है..या सच्चाई नहीं रहती है..इसलिए सबमें पहले से पहला..सबमें बड़ा सा बड़ा..और सबमें बड़ी सी बड़ी उपलब्धि इस पवित्र सम्यक दर्शन के अलावा और कोई चीज नहीं है..इसलिए इस पवित्र सम्यक दर्शन को हमें धारण करना चाहिए...अब कवि अपने आप से कहते हैं की "हे दौलत राम अब तू समझ जा...सुन ले..और जाग जा,मोह,नींद से जाग जा और इस अनुपम काल को व्यर्थ में मत खो...क्योंकि अगर एक बार यह दुर्लभ अवसर चला गया...तोह यह नर भव फिर से मिलना बहुत कठिन है.

हमें भी इस सम्यक दर्शन को धारण करना चाहिए..क्योंकि एक तरफ तीनों लोकों का राज हो..और दूसरी तरफ सम्यक दर्शन तोह इस सम्यक दर्शन के आगे तीनो लोक का राज भी छोटा पद जाता है..क्योंकि यह राज,सम्पदा आयु पूरी होने के साथ ही गायब हो जाती है,अपनी नहीं रहती है..लेकिन सम्यक दर्शन अतुल्य,निराकुल..अनंत सुख प्राप्त करता है.

रचयिता-कविवर श्री दौलत राम जी
लिखने का आधार-स्वाध्याय (६ ढाला,संपादक-पंडित रत्न लाल बैनाडा जी,डॉ शीतल चंद जैन)

तीसरी ढाल पूरी हुई.

जा वाणी के ज्ञान से सूझे लोकालोक,सो वाणी मस्तक नमो सदा देत हूँ ढोक



















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