जरूर-पढियेगा...एक बहुत बड़े प्रश्न का जवाब..........
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वह प्रश्न है की आखिर ऐसा क्या कारण है...की
<<<<<<<<<<<<<<<<<<<<<आखिर हमारी जिनेन्द्र भगवन के धर्म पर श्रद्धा क्यों नहीं हो पाती है???......>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>
<<<<<<<<<<<<<<<<<<<<<किस कारण से हमें धर्म पे आस्था आने से पहले ही हमें दस प्रकार के उदहारण मिल जाते हैं>>>>>>>>>>>>>>>>>>
<<<<<<<<<<जिससे हम यह सोचने लगते हैं की आजकल धार्मिक लोग,सच्चे-साधू,नहीं हैं,या ज्यादा धर्म में लगने से या>>>>>>>>
<<<<<<<<<<<< श्रद्धा करने से कोई फायदा नहीं,या कुछ प्राप्त नहीं होता. ???? >>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>
"""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""क्यों हम साधुओं में कमी निकालने लगते हैं???.,""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""
"""""""""""""""""""""""""""""क्यों हम नास्तिकों की,या मिथ्या-मार्गियों की बातों में फस जाते हैं"""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""
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क्या वाकई में आज-के-ज़माना,हमें धार्मिक नहीं बन्ने देता,क्या वाकई में लोग हमें रोकते हैं,परम पूज्य मुनि क्षमा सागर जी महाराज कहते हैं की कोई कारण बहारी नहीं है...कारण तोह अन्दर ही बैठा """""""दर्शन मोहिनीय कर्म है""""""""""""...............और जानते हैं इस कर्म के बारे में???//// -------------------------------------------------------
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वह प्रश्न है की आखिर ऐसा क्या कारण है...की
<<<<<<<<<<<<<<<<<<<<<आखिर हमारी जिनेन्द्र भगवन के धर्म पर श्रद्धा क्यों नहीं हो पाती है???......>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>
<<<<<<<<<<<<<<<<<<<<<किस कारण से हमें धर्म पे आस्था आने से पहले ही हमें दस प्रकार के उदहारण मिल जाते हैं>>>>>>>>>>>>>>>>>>
<<<<<<<<<<जिससे हम यह सोचने लगते हैं की आजकल धार्मिक लोग,सच्चे-साधू,नहीं हैं,या ज्यादा धर्म में लगने से या>>>>>>>>
<<<<<<<<<<<< श्रद्धा करने से कोई फायदा नहीं,या कुछ प्राप्त नहीं होता. ???? >>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>
"""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""क्यों हम साधुओं में कमी निकालने लगते हैं???.,""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""
"""""""""""""""""""""""""""""क्यों हम नास्तिकों की,या मिथ्या-मार्गियों की बातों में फस जाते हैं"""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""
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क्या वाकई में आज-के-ज़माना,हमें धार्मिक नहीं बन्ने देता,क्या वाकई में लोग हमें रोकते हैं,परम पूज्य मुनि क्षमा सागर जी महाराज कहते हैं की कोई कारण बहारी नहीं है...कारण तोह अन्दर ही बैठा """""""दर्शन मोहिनीय कर्म है""""""""""""...............और जानते हैं इस कर्म के बारे में???//// -------------------------------------------------------
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DARSHAN MOHNIYA KARMA
दर्शन मोहिनीय कर्म
जिस कर्म के कारण यह जीव वास्तविकता को नहीं जान पा रहा है,या नहीं
पहचान पा रहा है..वह मोहिनीय कर्म है..असल में दुनिया ऐसी है नहीं जैसी
दिखती है..जो इन दो आँखों से नहीं पता लगाया जा सकता है..जब हम अन्तरंग की
आँखों से देखते हैं..तब पता लगता है..जब हमें सच्चे देव-गुरु-शास्त्र-धर्म
का सानिध्य मिलता है..जब हमें कोई जानकारी मिलती है..की यह दुनिया क्या है
कैसी है?,अस्थिर है,क्षणभंगुर है,या कैसी है...अनेकों बार मुझे इनका
सानिध्य मिला..,उन्होंने सातों तत्वों का सच्चा श्रद्धान बताया..मोह त्याग
का उपदेश हुआ..लेकिन फिर भी इस मोह की आवृति को नहीं हटा पाया,तरह-तरह के
बहाने बनाने लगा,धर्म को दोषी,ज़माने को दोषी बताने लगा..साधुओं पे दोष रखने
लगा..इस मोह रुपी मैल को नहीं हटा पाया अगर इस का कोई कारण है तोह वह
कोई बाहरी कारण नहीं है..वह कारण मेरे अन्दर ही छुपा
है जो है मोहिनीय कर्म...यह दो प्रकार से १.दर्शन-मोहिनीय और चरित्र मोहिनीय...जो
मेरे दर्शन को-मेरी दृष्टी को-मेरे दृष्टिकोण को या मेरे अन्दर
दृष्टी की निर्मलता को नहीं आने देता है वह दर्शन मोहिनीय कर्म है..इसके
कारण है
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१.केवली-वीतरागी भगवन में या भगवन के इश्वर के स्वरुप में दोष निकालना--भगवन
को भूख लगती है,भगवन को प्यास लगती है,भगवन डरते हैं,भगवन को भी
तोह नींद आती होगी,भगवन को भी तोह ग्रहण लगते होंगे..भगवन भी
तोह इन्द्रियों को वश में नहीं करते होंगे...इस प्रकार भगवन के सच्चे
स्वरुप को न जानकर तरह-तरह के मिथ्या आरोपण करना..यहाँ तक की वीतरागता में
भी राग निकालना..जो की होता ही नहीं..कोई किसी के दोष में दोष निकाले
तोह सही है..लेकिन जिसमें दोष ही नही है..उसे दोषी करार दे यह
तोह बहुत पाप कर कारण है.
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२.श्रुत में-शास्त्रों में दोष निकालना- शास्त्र में यह
फलानी चीज गलत है..यह तोह फ़ालतू की बात है,ऐसा कहाँ लिखा है कि रात में
खाना मत खाओ,ऐसा कहाँ लिखा है कि ऐसा करने से ऐसा होता है..अरे इससे कुछ
नहीं होता..इस प्रकार कि शंका अदि करना शास्त्र में दोष निकालना अदि बहुत
दोष का कारण है..और दर्शन-मोहिनीय कर्म बंधता है.
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३.धर्म में दोष निकालना-हिंसा में धर्म मानना...किसी जीव
को दुःख देंगे तोह धर्म है नहीं तोह नहीं है..जबकि धर्म तोह अहिंसा और
वीतरागता में ही है..लेकिन राग-द्वेष अदि परिणामों में,क्रोध मान माया लोभ
में,विषय और इन्द्रियों के साथ प्रवर्ती करने में ..धर्म मानना..या
धर्म को दुखदायी मान कर दूर रहना और ऐसा विचार करना की धर्मी लोग ज्यादा दुखी हैं अधर्मी से..कोई
धर्म करे तोह उसे रोकना..और ऐसे ही उपदेश देना..दर्शन-मोहिनीय कर्म के बंध
का कारण है
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४.संघ में दोष निकालना-- संघ यानी की मुनि-आर्यिका-श्रावक-श्राविकाओं की
निंदा करना..उनी निंदा करना..या ऐसा मानना की यह कितने दुखी रहते हैं..अभी
दुखी हैं तोह आगे कितने दुखी होंगे..या तरह-तरह की बाते कहना..आजकल तोह बस
कहने के साधू हैं..ऐसी तरह की बातें..यह साधू लोग तोह पक्षपाती हैं..अपने
दोष न निकालके ज़माने अदि को दोष देना..तथा उत्तम-श्रावक कुल या मुनियों के
चरित्र में बाधा डालना....यानी की उनके लिए भक्ति न रखकर अभक्ति या सिर्फ
दिखने मात्र की या बोलने मात्र की भक्ति रखना..दर्शन-मोहिनीय कर्म बंधने का
कारण है
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५.देव पर दोष लगाना-देव जो स्वर्गों में रहते हैं उनमें
-उनके अन्दर दोष कहना ..ऐसा सोचना यह तोह अप्सरों में रहते हैं..मांस-मदिरा
का भक्षण करते हैं..कुछ भी खाते हैं...क्रोधी होते हैं..डरपोक होते
हैं..डरपोक होते हैं..या मिथ्यादृष्टि होते हैं..वात्सव में स्वर्गों के
अधिकांश देव सम्यक दृष्टी होते हैं..और जिन धर्म-जिन आगम पर श्रद्धा रखते
हैं...अभक्ष्य तोह भक्षण कैसे करेंगे जब भूख-प्यास लगने पर अमृत झर जाता
है..यानी की स्वर्गों के देव गुण-वान होते हैं..यहाँ अधिकांश की बात कही जा
रही है...और उसमें भी दोष निकालना और ऐसे उलटे-सीधे मतों को मानना ऐसा
कहने वाले मिथ्याधर्म को मानना..दर्शन मोहिनीय कर्म का बंध करता है यहाँ पर
जो देवों की बात हो रही है..वह स्वर्गों के देवों की बात कर रहे हैं..न
की व्यंतर,भवनवासी और ज्योतिष देवों की बात हो रही है.
____________________________________________________________________________________________________________यह
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जो कुछ भी लिखा है -मैंने मुनि श्री १०८ क्षमा सागर जी महाराज के प्रवचनों में से सुना है..कहने का मतलब है लिखने का आधार मुनि श्री के प्रवचन है..और बहुत से शब्द मेरे खुद के हैं..इसलिए उसमें कोई बात जैन-धर्म के अनुरूप नहीं है..या जैसा बताया गया उससे ज्यादा है....या उससे बहुत कम है..या और कोई लिखने में कोई गलती है ..तोह बताएं
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जो कुछ भी लिखा है -मैंने मुनि श्री १०८ क्षमा सागर जी महाराज के प्रवचनों में से सुना है..कहने का मतलब है लिखने का आधार मुनि श्री के प्रवचन है..और बहुत से शब्द मेरे खुद के हैं..इसलिए उसमें कोई बात जैन-धर्म के अनुरूप नहीं है..या जैसा बताया गया उससे ज्यादा है....या उससे बहुत कम है..या और कोई लिखने में कोई गलती है ..तोह बताएं
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कहीं पर कोई बात गड़बड़ लग रही हो तोह बताएं..
जा वाणी के ज्ञान से सूझे लोकालोक,सो वाणी मस्तक नमो सदा देत हूँ ढोक
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