Wednesday, October 5, 2011

chauthi dhaal-complete

६ ढाला

चौथी ढाल

सम्यक ज्ञान का स्वरुप

सम्यक श्रद्धा धारी पुनः सेवहु सम्यक ज्ञान
स्व पर अर्थ बहु-धर्म जुत जो प्रगटावान भान.

शब्दार्थ
१.सम्यक-श्रद्धा--सम्यक दर्शन
२.पुनः-पीछे,फिर उसके बाद
३.सेवहूँ-ग्रहण करो
४.सम्यक ज्ञान-सच्चा ज्ञान
५.स्व-निज आत्मा
६.पर-पर पदार्थ जैसे शरीर अदि
७.बहु धर्म-अन्केकांत धर्मात्मक
८.जुट-सहित
९.प्रगटावान-प्रगट करता है
१०.भान-सूर्य के सामान

भावार्थ
चौथी ढाल सम्यक ज्ञान और सम्यक चरित्र के ऊपर है...सम्यक दर्शन करने के बाद ही सम्यक ज्ञान को धारण करना चाहिए...क्योंकि सच्चा ज्ञान..जब तक सच्ची श्रद्धा नहीं होगी..तब तक सच्चा नहीं हो पायेगा..इसलिए पहले सम्यक ज्ञान को धारण करें..और करना चाहिए...सम्यक ज्ञान वह ज्ञान है जो आत्मा और पर पदार्थों को उनके अनेक-गुणों के साथ,अनेक धर्मों के साथ जो सूर्य के सामान प्रगट करता है..वह सम्यक ज्ञान है.

सम्यक साथै ज्ञान होए,पै भिन्न अराधो
लक्षण श्रद्धा जान दुहूँ में भेद अबाधो
सम्यक कारण जान ज्ञान कारज है सोई
युगपत होत हूँ भी प्रकाश दीपकतैं होई

शब्दार्थ
१.सम्यक साथै-सम्यक दर्शन के साथ
२.ज्ञान-सम्यक ज्ञान
३.पै-तोह भी
४.भिन्न-अलग,अलग
५.अराधो-मानना चाहिए
६.श्रद्धा-दर्शन
७.जान-जानने
८.दुबहूँ-दोनों में
९.अबाधो-निर्बाध
१०.सोई-है
११.युगपत-एक ही,एक साथ
१२.होत हूँ-होने के बाबजूद
१३.प्रकाश-उजाला
१४.होई-होता है

भावार्थ
सम्यक दर्शन ( सच्ची श्रद्धा) और सच्चा ज्ञान ( सम्यक ज्ञान) एक साथ ही होता है,लेकिन तोह भी उसमें अंतर जानना चाहिए..सम्यक दर्शन का लक्षण श्रद्धा है,दर्शन है या विश्वास है,लेकिन सम्यक ज्ञान का लक्षण ज्ञान है,जानना है..और दोनों में निर्बाध अंतर है..एक दम अलग है..सम्यक दर्शन कारण है...और सम्यक ज्ञान कार्य है...बिना कारण कार्य नहीं होता..उसी प्रकार बिना सम्यक दर्शन के सम्यक ज्ञान नहीं होता..ठीक उसी प्रकार जैसे दीपक और प्रकाश अलग-अलग हैं..लेकिन दीपक को ही प्रकाश का कारण माना जाता..दीप को जलाते ही प्रकाश होता है..लेकिन दीपक और प्रकाश दोनों भिन्न-भिन्न चीजें हैं..इसी प्रकार सम्यक दर्शन और सम्यक ज्ञान अलग अलग हैं..लेकिन दोनों एक साथ ही होती हैं
सम्यक ज्ञान के भेद और देश प्रत्यक्ष का लक्षण
तास भेद हैं दो,परोक्ष,परतछि तिन माहि
मति श्रुति दोय परोक्ष अक्ष मन तैं उपजहिं
अवधि ज्ञान मन-पर्जय दो हैं देश प्रत्यक्षा
द्रव्य-क्षेत्र परिमाण लिए जाने जिय स्वच्छा.

शब्दार्थ
१.तास-उस सम्यक ज्ञान
२.परोक्ष-परोक्ष ज्ञान
३.परतछि-प्रत्यक्ष ज्ञान
४.मति-श्रुत-मति ज्ञान और श्रुत ज्ञान
५.दोय-यह दोनों
६.अक्ष-इन्द्रिय
७.उपजाही-पता चलता है
८.मन-पर्जय-मन पर्याय ज्ञान
९.द्रव्य क्षेत्र परिमाण-द्रव्य,क्षेत्र,भाव,काल और भावों के परिमाण,या सीमा के साथ
१०.जिय-जीव
११.स्वच्छा-प्रकट

भावार्थ
उस सम्यक ज्ञान(सच्चे ज्ञान) के दो भेद हैं..प्रत्यक्ष ज्ञान और परोक्ष ज्ञान..परोक्ष ज्ञान वह है जो इन्द्रिय और मन की सहायता से होता है..इसके दो प्रकार हैं १.मति ज्ञान और २.श्रुत ज्ञान...मति ज्ञान और श्रुत ज्ञान इन्द्रिय और मन की सहायता से होते हैं..दूसरा प्रत्यक्ष ज्ञान हैं..इसके दो भेद हैं देश प्रत्यक्ष और सकल प्रत्यक्ष..देश प्रत्यक्ष वह है जिसमें जीव बिना इन्द्रिय और मन की सहायता से जानता तोह है..लेकिन द्रव्य क्षेत्र,भाव,काल और भाव की सीमा के साथ जानता है..जैसे की "इस इलाके से आगे का नहीं जान सकता,,या सात भाव से पहले का नही जान सकता ,या आज ही आज का जानता है,कल का नहीं..)यह सब उदहारण हैं,,इस ज्ञान के दो भेद हैं १.अवधि ज्ञान और दूसरा २.मन पर्याय ज्ञान...सकल प्रत्यक्ष के बारे में अगले श्लोक में जानेंगे.
 
सकल प्रत्यक्ष का लक्षण और ज्ञान का महत्व
सकल द्रव्य के गुण अनंत परजाय अनंता
जाने एकहूँ काल  प्रकट केवली भगवंता
ज्ञान सामान न आन जगत में सुख को कारन
इही परमामृत जन्म-जरा-मृत रोग निवारन.

शब्दार्थ
१.सकल-सारे ६ द्रव्यों
२.गुण-जो एक द्रव्य को दुसरे द्रव्य से भिन्न करे
३.अनंत-अ-धन-अंत..जिस राशि का अंत नहीं है
४.एकहूँ-एक ही
५.प्रकट-स्पष्ट
६.आन-कोई दूसरा
७.जरा-बुढ़ापा
८.निवारन-नष्ट करने वाला,ख़त्म करने वाला

भावार्थ
सकल द्रव्य (जीव,पुद्गल,नभ,धर्म,अधर्म और काल)..इन ६ द्रव्यों के अनंत गुण हैं और अनंत पर्याय हैं..और इन अनंत गुण और अनंत पर्याय को केवली भगवन एक ही काल में,एक ही समय में स्पष्ट जानते हैं..यह सकल प्रत्यक्ष ज्ञान है या केवल ज्ञान है..केवल ज्ञान अनंत राशि को भी जान सकते हैं..जबकि सर्वावधि ज्ञान भी इस राशि को नहीं जान sakta,लेकिन सकल प्रत्यक्ष(केवल ज्ञान) इस राशि को जान sakta है.ज्ञान के सामान जगत में दुःख का नाश करने वाली कोई दूसरी चीज नहीं है..या ज्ञान के सामान सुख को देने वाली कोई दूसरी चीज नहीं है..क्योंकि कोई भी अज्ञान अवस्था में ही पाप करता है..अथवा अज्ञान ही दुःख का कारन है...लेकिन ज्ञान रुपी परमामृत तोह जन्म,जरा और मृत्यु के रोगों का विनाश कर देता है..इस ज्ञान के बिना संसार में दुःख ही दुःख है..और ज्ञानामृत हमेशा सुख को देने वाला ही है..आकुलता रहित सुख को सिर्फ ज्ञान के माध्यम से पाया जा सकता  है.

ज्ञानी और अज्ञानी की कर्म निर्जरा में अंतर

कोटि जन्म तप तपैं,ज्ञान बिन कर्म झरैं जे,
ज्ञानी के छिनमाहीं,त्रिगुप्तितैं सहज टरैं ते
मुनि व्रत धार अनंत बार ग्रीवक उपजायो
पै निज आतम ज्ञान बिना,सुख लेश न पायो


शब्दार्थ
१.कोटि-करोड़ों
२.ज्ञान बिन-ज्ञान के बिना
३.जे-जितने
४. छिनमाहि-एक क्षण में
५.त्रिगुप्तितैं-मन वचन के की प्रवर्ती को वश में करके
६.सहज-बड़ी सरलता से
७.टरैं-नष्ट हो जाते हैं
८.ते-उतने
९.ग्रीवक-नौवे ग्रैवेयक तक
१०.पै-तोह भी
११.लेश-जरा सा भी
१२.पायो-नहीं पाया


भावार्थ

जितने कर्मों की निर्जरा कोई जीव बिना ज्ञान के करोड़ों जन्मों तक तपस्या करने के बाद कर पायेगा...उतने कर्मों की निर्जरा तोह ज्ञानी जीव मन-वचन काय की प्रवर्ती को वश में करके बड़ी सरलता से एक क्षण में ही कर देगा....इसलिए ज्ञान बहुत सुख दाई है,इस जीव ने मुनि व्रत को अनेकों बार धारण तोह कर लिए..लेकिन आत्म-स्वरुप का ज्ञान ग्रहण नहीं किया जिसके कारण,मुनि व्रत के फल स्वरुप नवमें ग्रैवेयकों के देवों में तोह उत्पन्न  हो गया..लेकिन निज आत्मा स्वरुप के ज्ञान के बिना इस जीव ने(हमने) जरा सा भी सुख नहीं पाया

तत्व अभ्यास की प्रेरणा,ज्ञान के तीन दोष,मनुष्य पर्याय,सुकुल और जिनवाणी की दुर्लभता

तातैं जिनवर कथित तत्व-अभ्यास करीजै
संशय विभ्रम मोह त्याग आपों लाख लीजै
यह मानुष पर्याय सुकुल सुनिवों जिनवाणी
इही विधि गए न मिले,सुमणि ज्यों उदधि समानी

शब्दार्थ
.तातैं-इसलिए
२.कथित-कहे हुए
३.तत्व-सात-तत्वों का
४.करीजै-करिए
५.संशय-शंका
६.विभ्रम-विपरीत मान्यता
७.मोह-कुछ भी,कैसे भी
८.आपो-आत्मा स्वरुप
९.लाख-पहचान लीजिये,जान लीजिये
१०.मानुष-यह मनुह्स्य
११.सुनिवों-जिनवाणी सुनने का मौका
१२.इही विधि-ऐसा सुयोग
१३.गए-अगर चला गया
१४.न मिले-नहीं मिलेगा
१५.सुमणि-उत्तम रत्ना
१६.ज्यों-के सामान
१७.उदधि-समुद्र में
१८.समानी-डूब गयी हो

भावार्थ
इस जीव ने संसार में कही भी सुख नहीं पाया और जन्म मरण के दुःख को ज्ञान के आभास में भोगता रहा ..इसलिए सुखी रहने के लिए श्री जिनदेव द्वारा कहे हुए सातों तत्वों का सच्चा श्रद्धां और निरंतर अभ्यास करना चाहिए...और ज्ञान के तीन दोष १.संशय-शंका(मैं शरीर हूँ या आत्मा ) २.विभ्रम-विपरीत मान्यता(मैं शरीर हूँ) और ३.मोह-कुछ भी..(मैं दोनों हूँ,क्या फर्क है)..इन तीनो दोषों को त्याग कर के अपने आत्मा स्वरुप को पहचानना चाहिए...यह मनुष्य पर्याय,सुकुल (जैन कुल,उत्तम श्रावक कुल)..और जिनवाणी सुनने का दुर्लभ से दुर्लभ अवसर इतनी मुश्किल से मिला है..इसका पूरा प्रयोग करना चाहिए..क्योंकि अगर यह सुयोग हाथ से निकल गया तोह फिर उसी प्रकार नहीं मिलेगा..जिस प्रकार समुद्र में उत्तम रत्ना के डूब जाने के बाद वह रत्ना वापिस नहीं मिलता है..उसी प्रकार यह मनुष्य योनी,सुकुल और जिनवाणी सुनने का मौका वापिस नहीं मिलता है...और बड़ी दुर्लभता से मिलता है.

सम्यक ज्ञान का महत्व और ज्ञान का महत्व

धन समाज,गज,बाज राज तोह काज न आवे
ज्ञान आपको रूप लहै,फिर अचल लहावै
तास ज्ञान को कारण स्व पर विवेक बखानो
कोटि उपाय बनाय भव्य ताको उर आनो

शब्दार्थ
१.धन-दौलत,रुपया,पैसा,भोग,विलास.
२.समाज-परिवारी जन,दोस्त,माता,पिता,पडौसी ,sharir
३.गज-हाथी,वहान
४.बाज-घोड़े,नौकर अदि
५.राज-राज्य,सम्पदा,महल,मकान
६.काज-काम नहीं आते हैं
७.लहै-है
८.अचल-अटल हो जाता है
९.तास-उस
१०.स्व-पर--आत्मा और वस्तुओं की पहचान
११.भेद--भेद विज्ञान
१२.कोटि-करोड़ों
१३.उपाय-तरीकों से
१४.ताको-उस भेद विज्ञान को
१५.उर-हृदय
१६.आनो-लाओ,ग्रहण करो

भावार्थ
यह जितना भी रुपया,पैसा,दौलत,परिवारी जन,दोस्त,माता,पिता,भाई,बहन,पडोसी,हाथी,घोड़े,राज्य सम्पदा और अनन्य वैभव कुछ भी काम नहीं आता है..यह दुःख से नहीं बचा सकते हैं...या ऐसा नहीं हो सकता है की इनको प्राप्त करने के बाद दुःख न आये,या यह हमेशा रहे,या छोड़ कर-के नहीं जाएँ,या उसके बाद आकुलता न हो,किसी प्रकार का दुःख नहीं आये...लेकिन यह बात बड़े गौर की है की यह सब चीजें ही हमारे लिए दुःख की कारणभूत हैं..और इन्ही के प्रति राग-द्वेष रखने से ही दुःख आता है...अगर सुख इन चीजों में होता..तोह बड़े बड़े अरबपतियों का देह वासन नहीं होता..और वह हमेशा सुखी नहीं रहते..इस जीव ने अनेकों बार नवमें ग्रैवेयक के देवों में जन्म  लिया..लेकिन बिना निज आत्मा ज्ञान के दुखी ही रहा..लेश मात्र भी सुख नहीं रहा..वैसे भी बड़े बड़े चक्रवती सम्राट आदियों को भी देह त्याग के सब यहीं का यहीं छोड़ कर जाना पड़ा..तोह हम क्या हैं...यानी की यह भौतिक वस्तुओं कभी काम नहीं आती हैं....लेकिन जो ज्ञान है..वह तोह आत्मा का निज स्वाभाव है....यह तोह अटल है..यह कभी जाता नहीं है...आत्मा का स्वाभाव ही तोह है दर्शन और ज्ञान ..और सम्यक ज्ञान के बाद यह ज्ञान अटल हो जाता है....इस सम्यक ज्ञान का कारण स्व-पर का विवेक बताया गया..यानि की भेद विज्ञान,आत्मा और शरीर का भेद विज्ञान बताया है...और यह भेद विज्ञान और सम्यक ज्ञान के अलावा संसार में कोई भी वस्तु सुख दाई नहीं है...इसलिए सुख के इच्छुक..निराकुल आनंद सुख के इच्छुक जीवों को कोटि-कोटि उपाय करके भी इस भेद विज्ञान को ह्रदय में लाना चाहिए.

सम्यक ज्ञान की महिमा,विषय चाह रोकने का उपाय


जे पूरव में शिव गए,जाहीं अरु आगे जे हैं,
सो सब महिमा ज्ञान-तनी,मुनि नाथ कहे हैं
विषय चाह दाव-दाह,जगत-जन अरनिं दझावे
ताकू उपाय न आन ज्ञान घनघान बुझावे



शब्दार्थ
१.जे-जो
२.पूरव-पहले
३.शिव-मोक्ष,आकुलता रहित अवस्था
४.जाहीं-जा रहे हैं
५.अरु-और
६.जे-जायेंगे
७.सो-यह सारी
८.ज्ञान-तनी--सम्यक ज्ञान की
९.मुनिनाथ-अरिहंत भगवन या गणधर भगवन
१०.कहे हैं-मुनियों के नाथ ने कहा है
११.दव-दह--दावानल के सामान जलने वाली है
१२.जगत-जन-संसार के जीवो को
१३.अरनिं-वन को
१४.दझावे-जला रही है
१५.ताकू-इसका
१६.आन-कोई दूसरा
१७.ज्ञान-सम्यक ज्ञान-सच्चा ज्ञान
१८.घन-घान-मेघों का समूह
१९.बुझावे-बुझाता है


भावार्थ
जिन जिन जीवों ने आकुलता रहित,निराकुल आनंद सुख को यानी की मोक्ष सुख को प्राप्त किया है,या प्राप्त कर रहे हैं...या आगे प्राप्त करेंगे....वह सिर्फ सच्चे ज्ञान की मदद से ही प्राप्त कर सकेंगे..और जो भी जीव आजतक मोक्ष सुख को प्राप्त कर रहे हैं या कर चुके हैं...यह सब महिमा सम्यक ज्ञान की ही है...ऐसा मुनियों के नाथ,वीतरागी,१८ दोषों से रहित भगवान ने कहा है...और गणधर भगवान ने कहा है. विषयों की चाह दावानल के सामान संसार के जनसमूह रुपी वन को जला रही है..जीर्ण-शीर्ण कर रही है..और इस विषयों की चाह को रोकने के लिए संसार में सम्यक ज्ञान,भेद विज्ञान,सच्चे ज्ञान के सिवाय अन्य कोई उपाय नहीं है...यह सम्यक ज्ञान रुपी मेघों का समूह संसार के जनसमूह रुपी वन में लगी हुई विषयों की आग को बुझा देता है..इसलिए हम को इस महा-कल्याणकारी सम्यक ज्ञान को धारण करना चाहिए.

  चौथी ढाल
                                  पुण्य पाप के फलों में हर्ष विषाद का निषेद

                                    पुण्य पाप फलमाहीं हरख बिलखौ मत भाई
                                                      यह पुद्गल परजाय उपजै-विनसे फिर थाई
                                                       लाख बात की बात यह निश्चय उर लाओ
                                                    तोरि सकल जग-द्वंद-फंद निज आतम ध्याओ 

शब्दार्थ
१.फलमाहीं- फलों में
२.हरख-हर्ष,rati
३.विलखौ-दुखी मत हो,अरतु
४.भाई-हे भव्य जीवों
५.पुद्गल-अजीव का एक प्रकार,जिसमें वर्ण,रस,गंध,स्पर्श हों
६.परजाय-एक पर्याय 
७.उपजै-उपजती है
८.विनसे-नष्ट हो जाती है
९.फिर-फिर से 
१०.थाई-पैदा हो जाती है
११.लाख बात की बात-सबसे बड़ी और ख़ास बात,या सीधी सीधी बात तोह यही है
१२.तोरि-तोड़कर
१३.सकल-सारे
१४.जग-संसार के
१५.द्वंद-फंद-झगडे,झंजत,मसलें,सुख-दुःख
१६.ध्याओ-ध्यान करो

भावार्थ
हे भव्य जीवों पुण्य और पाप के फलों में रति,अरति या हर्ष-विषाद करना छोडो...क्योंकि शुभ और अशुभ तोह पुद्गल की पर्याय हैं...यह बार उपज-जाती हैं,नष्ट हो जाती हैं,पैदा हो जाती,फिर उपज जायेंगे..और फिर नष्ट हो जायेंगी...अतः यह तोह अस्थायी हैं..हमेशा न रहने वाली हैं...यह तो असाता और साता वेदनीय कर्म के उदय से आती हैं..और कर्म तोह पुद्गल ही है...अतः हमेशा नहीं रहती हैं..आज सुख तोह कल नहीं,आज घर है तोह कल  कंगाल है,आज पुत्र ऐसा कर रहा है,कल बदल जाए..कोई भरोसा नहीं...यह सारे विषय,भोग,सुन्दरता,घर-वार,स्त्री,हाथी,घोड़े,मकान सम्पदा सब अस्थायी हैं..और सब अशुभ और शुभ के उदय से आती जाती रहती हैं..और यह सारी क्षण-भंगुर हैं..इसलिए इनके संयोग और वियोग में क्या दुखी होना?...लाख बात की बात तोह यह जान लेनी चाहिए..और ह्रदय में धारण कर लेनी चाहिए कि सच्चा सुख आत्मा स्वरुप में ही है,सुख कहीं बहार नहीं मिलता है..उल्टा बहार तोह दुःख ही दुःख है..इसलिए इस संसार के झगडे-झंजतों से बच कर,मोह-माया में नहीं पड़ना चाहिए और आत्मा का ध्यान करना चाहिए.

सम्यक चरित्र-एक देश में अहिन्साणु और सत्याणु व्रत का वर्णन

सम्यक ज्ञानी होय बहुरि,दिढ़ चरित्र कीजै
एक देश अरु सकल देश,तसु भेद कहीजै
त्रस हिंसा को त्याग,वृथा थावर न संघारे
पर वधकार,कठोर निंद नहीं वयन उचारे

शब्दार्थ
१.होय-होने के बाद
२.बहुरि-भव्य जीवों
३.दिढ़-अटल,हमेशा रहने वाला
४.कीजै-धारण करो
५.अरु-और
६.सकल-देश--सर्व देश (मुनियों के लिए)
७.सकल देश(श्रावकों के लिए)
८.तसु-जिसके
९.कहीजै-कहे गए हैं
१०.त्रस-एक से ज्यादा इन्द्रिय वाले जीव
११.वृथा-बेकार में
१२.थावर-एकेंद्रिया जीव
१३.संघारे-हिंसा न करे
१४.पर-वधकर-किसी की प्राण-घातक
१५.कठोर-चुभने वाली,बुरी लगने वाली
१६.निंद-निंदनीय..और निंदा की बातें
१७.वयन-वचन
१८.उचारे-उच्चारण करना

भावार्थ
सम्यक ज्ञान,सच्चे ज्ञान को ग्रहण करने के बाद सच्चा चरित्र,अटल चरित्र ग्रहण करना चाहिए..जिसके दो भेद कहे गए हैं..एक देश जो की श्रावकों के लिए हैं और सकल देश जो की मुनियों के लिए बताया गया है.जिसमें श्रावक के १२ प्रकार के व्रत आते हैं..जिसमें पांच अणु व्रत,३ गुण व्रत और ४ शिक्षा व्रत हैं..जिनमें से अणु व्रत का वर्णन कर रहे हैं..
पहले सत्याणु और अहिन्साणु व्रत का वर्णन करते हैं---
१.सत्याणु व्रत का लक्षण यह है की इस व्रत को धारण करने वाला जीव कभी भी ऐसे शब्द नहीं कहेगा..जो अन्य के प्राण के लिए घटक हो जायें..कष्ट दाई हो जायें,दूसरा किसी को चुभने वाले कठोर शब्द नहीं कहेगा..और तीसरा किसी की निंदा अदि नहीं करेगा..और न ही निंदनीय शब्द (जैसे गली-गलोंच) अदि नहीं कहेगा.

२.अहिन्साणु व्रत का लक्षण यह है की इस व्रत को धारण करने वाला जीव त्रस हिंसा का सर्वथा के लिए त्याग,बेफाल्तू में थावर जीवों की हिंसा नहीं करेगा (जैसे पंखा खुला छोड़ दिया,अग्नि जलती छोड़ दी,पानी वार्बाद करना अदि)..यानि की पंचेंद्रिया हिंसा का तोह सवाल ही नहीं उठता.

अचौर्याणु,ब्रह्मचार्याणु,परिग्रह प्रमाण और दिग व्रत का स्वरुप

जल मृतिका बिन और कुछ न गहै अदत्ता
निज स्त्री बिन सकल स्त्री सों रहे विरत्ता
अपनी शक्ति विचारपरिग्रह थोड़ा राखो
दस-दिश गमन प्रमाण ठान,तसु सीम न नाखो
शब्दार्थ
१.जल-पानी
२.मृतिका-मिटटी
३.बिन-जल और मिटटी को छोड़कर
४.गहै-ग्रहण करे
५.अदत्ता-बिना दिए हुए
६.निज स्त्री-विवाहित स्त्री
७.सकल-सारी
८.सों-से
९.विरत्ता-विरक्त रहना
१०.विचार-चिंतन करके
११.थोड़ा-कम
१२.राखो-कम रखों
१३.दश-दिश गमन-दशों दिशाओं में गमन
१४.प्रमाण-सीमा बनके
१५.तसु-उस सीमा
१६.न-नहीं
१७.नाखो-उलंघन

भावार्थ
३.अचौर्याणु व्रत का धारी श्रावक चोरी का सर्वथा के लिए त्याग तोह करेगा ही...और कहीं भी जाएगा.तोह वहां कि जल और मिटटी के अलावा बिना दिए और कुछ ग्रहण नहीं करेगा...और जल,मिटटी भी तब ग्रहण करेगा..जब तक वह जल और मिटटी सार्वजनिक ......नहीं होगी..किसी कि चीज बिना पूछे नहीं लेगा...और बिना दिए नहीं लेगा.

४.ब्रह्मचार्याणु व्रत का धारी श्रावक जिस स्त्री से उसने सांसारिक बंधन बांधा है..उसके अलावा अन्य स्त्रियों से विरक्त रहेगा..और अश्लील गाने,सिनेमा,पिक्चर और गाली अदि नहीं देगा..और न ही अश्लील बात करेगा

५.परिग्रह प्रमाण व्रत का धारी श्रावक अपनी शक्ति के हिसाब से परिग्रह कि सीमा बना लेगा..और उस सीमा के अंतर्ग्रत थोडा ही परिग्रह रखेगा..इसका मतलब यह नहीं है कि परिग्रह कम रखना है..मतलब यह है कि एक सीमा बनानी है...जैसे कि मेरे पे दो पेन हैं और ज्यादातर मान लीजिये दो पेन ही रहते हैं..तब भी मैं परिग्रह प्रमाण बना सकता हूँ (अभी तक नहीं बनाया है).

६.दिग व्रत के अंतर्ग्रत श्रावक अपने आने जाने कि,गमनागमन कि सीमा जीवन पर्यंत के लिए बनता है..जैसे के इस जगह से आगे नहीं जाऊंगा..और इस तरह का दशों दिशायों का जीवन पर्यंत परिमाण बना लेता है..और उस जगह से आई हुई वस्तुओं अदि भी ग्रहण नहीं करता


देश व्रत,अप्ध्यान और पापोपदेश अनर्थ दंड व्रत का स्वरुप
ताहू में फिर ग्राम गली गृह बाग़-बजारा
गमनागमन प्रमाण थान,अन सकल निवारा
काहू की धन-हानी,किसी जय-हार न चिन्ते
देय न उपदेश होय अघ वनज कृषिते

 शब्दार्थ
१.ताहू-फिर उसी
२.ग्राम-गाँव
३.गमनागमन-आने-जाने की
४.प्रमाण-सीमा
५.थान-बना के
६.अन-और
७.सकल-निवारा-बाकि जगह का त्याग
८.काहू की-किसी की
९.धन हानि-नुक्सान,पैसे का नुक्सान अदि
१०.जय-हार-जीत हार
११.चिन्ते-चिंता करना
१२.देय न-नहीं देना
१३.सो-ऐसा
१४.अघ-पाप
१५.वनज-व्यापार
१६.कृषितैं-खेती करने से

भावार्थ

.देश व्रत का धारी श्रावक दिग व्रत की तरह अपने आने जाने के सीमा तोह बना लेता है लेकिन उसका समय,घंटा घडी अदि का संकोच करता है...दिग व्रत जीवन-पर्यंत होता है..लेकिन यह देश व्रत-निश्चित समय के लिए बनाया जाता है..जैसे की अष्टमी,चतुर्दशी,या दशलक्षण व्रत,या रोहिणी  व्रत अदि दिनों में सीमा बना लेता है..या इसका और कम समय भी किया जा सकता है..जैसे की "जब तक प्रवचन सुन रहा हूँ,बिस्तर से नहीं उठूँगा,या कमरे से बाहार नहीं जाऊंगा.)
 ८.अनर्थ-दंड व्रत
अप ध्यान अनर्थदंड व्रत का धारी श्रावक किसी की धन-हानि,मान हानि,नुक्सान अदि के बारे में नहीं सोचता है..तथा किसी के जीत-हार अदि के बारे में नहीं सोचता है..यानि की जुआं,सट्टे अदि का काम नहीं करता है..न आनंद लेता है..इसके अंतर्ग्रत श्रावक कभी यह नहीं सोचता की एक जीते दूसरा हारे,या दूसरा जीते,पहला हारे..ऐसा नहीं है की इस व्रत का धारी श्रावक क्रिकेट अदि नहीं देखेगा,या कोई गेम नहीं खेलेगा,या और कुछ नहीं करेगा..बस जीत हार की भावना नहीं रखेगा.

पापोपदेश अनर्थ दंड व्रत का धारी श्रावक कोई भी ऐसा उपदेश नहीं देगा जिससे किसी प्रकार का पाप हो,चाहे हिंसा पाप हो,चोरी पाप हो,परिग्रह पाप हो,कुशील पाप हो या झूठ पाप हो..तथा खेती,व्यापार अदि करने का उपदेश नहीं देगा..क्योंकि इसमें हिंसा और पाप बहुत होता हैं...हिंसा का उपदेश नहीं देगा..और खुद भी ऐसे काम कम करेगा. उपदेश का मतलब सलाह,मशवरा अदि से भी हैं.

प्रमाद चर्या,हिंसादान और दु-श्रुतः अनर्थ दंड व्रत

कर प्रमाद जल भूमि,वृक्ष,पावक न विराधे
असि धनु हल,हिंसोपकरण,नहीं दे यश लागे
राग-द्वेष करतार कथा कबहूँ न सुनिजे
औरहूँ अनर्थ दंड हेतु अघ तिन्हे न कीजे


शब्दार्थ
१.अनर्थ-बेकार
२.प्रमाद-आलस,बेकार में,मजे में
३.पावक-अग्निकायिक और वयुकायिक जीव
४.विराधे-हिंसा करना
५,असि-तलवार
६.धनु-धनुष
७.हिंसोपकरण-हिंसा के कारण अस्त्र-शास्त्र
८.यश-लागे-यश नहीं मनन
९.करतार-करने वाली
१०.कबहू-कभी भी
११.सुनिजे-नहीं सुनना
१२.हेतु-की वजह से
१३.अघ-पाप
१४.कीजै-नहीं करिए

भावार्थ
प्रमाद चर्या अनर्थ दंड व्रत का धारी श्रावक बेमतलब में,प्रमाद या अकारण जल कायिक,वायुकायिक,अग्नि कायिक,वनस्पति कायिक और पृथ्वी कायिक जीवों की विराधना नहीं करेगा,जैसे पानी बर्बाद नहीं करना,कुदाल से मिटटी नहीं खोदना,फूल,पट्टी अदि नहीं तोडना,प...ंखा अदि बेफाल्तू में नहीं चलाना.

हिंसा दान अनर्थ दंड व्रत का धारी श्रावक तलवार,दनुष,हल अदि हिंसा के उपकरण को न किसी को देगा,न दिलवाएगा,न रखने वालों की अनुमोदन करेगा और न ही खुद रखने में यश मानेगा.जैसे की बन्दुक अदि रखने का काम नहीं रखेगा,.या अन्य हिंसा के कारण अस्त्र-शस्त्र और वस्तुओं को नहीं रखेगा.

दु-श्रुतः अनर्थ दंड व्रत का धारी श्रावक कभी भी राग-द्वेष को उत्तपन करने वाली कथाएँ पढ़ेगा,न सुनेगा, न सुनाएगा..जैसे की सिनेमा अदि नहीं देखेगा,अशील कथा नहीं पढ़ेगा,झूठे शास्त्र नहीं पढ़ेगा.


सामयिक,प्रोषादोपवास,भोगोपभोग परिमाण,अतिथि संबिभाग अदि शिक्षा व्रत

धर उर समता भाव,सदा सामयिक करिए
पर्व चतुष्टय माहीं,पाप तज प्रोषद धरिये
भोग और उपभोग नियम करि ममत निवारे
मुनि को भोजन देय फेर निज करहि आहारे.

शब्दार्थ
१.धर उर-मन में धर के
२.सदा-हमेशा
३.करिए-करना चाहिए
४.चतुष्टय-अष्टमी और चतुर्दशी को
५.माहीं-में
६.तज-त्याग कर
७.धरिये-धारण करे
८.नियम करी-परिमाण बना के
९.करि-करके
१०.निवारे-त्याग करे
११,भोजन-आहार
१२.देय-देने के बाद
१३.फेर-फिर उसके बाद
१४.करहि-करना

भावार्थ
चार शिक्षा व्रत

सामयिक व्रत को पालने वाला श्रावक हमेशा समता भाव से रहेगा,यानि की सुख और दुःख की घड़ियों में एक जैसा व्यवहार करेगा,और भुत की आपबीती,अच्छे,बुरी यादें और भविष्य के विकल्प नहीं बनाएगा....और हर दिन ४८ मिनट संधि काल के समय सामयिक करेगा.

प्रोषादोपवास व्रत को पालने वाला श्रावक महीने की दो अष्टमी और दो चौदस वाले दिन...व्रत रखेगा..और कोई भी ऐसा काम नहीं करेगा जिसमें पाप का बंध हो...यानि की पाप को ताज कर प्रोषद रखेगा
भोगोपभोग परिमाण व्रत पालने वाला श्रावक अपने भोगने की चीजें,न भोगने की चीजों का परिमाण बना लेगा,परिग्रह प्रमाण में जीव अपनी एक सीमा बनता है...लेकिन भोगोपभोग परिमाण व्रत में उस सीमा को और कम कर लेता है..और बाकि बची हुई चीजों से मोह-ममता का त्याग कर देता है.
अतिथि सम्भिभाग व्रत को पालने वाला जीव किन्ही मुनिराज,आर्यिका, ऐलक जी,क्षुल्लिका जी,क्षुल्लक जी.या किन्ही सुपात्र को भोजन खिलाकर खुद भोजन करेगा...जब तक वह जीव इनमें से किन्ही को भोजन न दे दे तब तक कुछ नहीं खायेगा.

व्रत पालन का फल

बारह व्रत के अतिचार पन-पन न लगावे
मरण समय संन्यास धरि तसु दोष नशावे
यों श्रावक व्रत पाल स्वर्ग सोलम उपजावे
तहां ते चय नर जन्म पाय,मुनि होय शिव पावे.



शब्दार्थ
१.अतिचार-दोष
२.पन-पन-पांच-पांच
३.न लगावे-नहीं लगता है
४.मरण समय-शरीर के त्याग के समय
५.संन्यास-समाधी मरण
६.धरि-धारण कर के
७.यों-इस तरह से
८.सोलम-सोलहवें
९.उपजावे-जन्म लेता है
१०.तहांते-वहां से
११.चय-आयु पूरी कर
१२.मुनि होय-मुनि व्रत पालन कर,
१३.शिव-मोक्ष (आकुलता रहित,कर्म रहित अवस्था)
१४.पावे-प्राप्त करता है

भावार्थ

श्रावक व्रत पालने का फल:-

जो मनुष्य श्रावक के १२ व्रतों को पालते हैं,वह भी पांच-पांच अतिचार को दूर करके,तथा जब आयु पूरी होने वाली हो शरीर की उस समय समाधी मरण को धारण करके,अथवा उसके दोषों को दूर करते हैं..इस श्रावक व्रत को पालने के परिणाम स्वरुप वह जीव १६ स्वर्ग तक के देवों में उत्त्पन्न होते हैं...और वहां से आयु पूरी करके मनुष्य आयु पाते हैं,और फिर मुनि होकर परम शिव पद,मोक्ष पद,निराकुल आनंद सुख को प्राप्त होते हैं.

रचयिता-कविवर श्री दौलत राम जी
लिखने का आधार-स्वाध्याय(६ ढाला,संपादक पंडित रत्न लाल बैनाडा,डॉ शीतल चंद जैन)

जा वाणी के ज्ञान से सूझे लोकालोक,सो वाणी मस्तक नमो सदा देत हूँ ढोक.


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