Tuesday, June 28, 2011

SAATA VEDNIYA KARMA

साता वेदनीय कर्म
क्या है साता वेदनीय कर्म?
जिस कारण से यह जीव,यानि की मैं,आप..या जिसके अन्दर धड़कन हैं,प्राण हैं,चेतना है..एक आत्मा तत्व..जिसके कारण भौतिक और अध्यात्मिक दोनों प्रकार के सुखों को प्राप्त करता है..वह साता वेदनीयकर्म है ..यहाँ पे आत्मिक सुख की बात नहीं हो रही है..क्योंकि कर्म रहित अवस्था ही सकल रूप से और स्थिर रूप से सुख-कारी है.
सुखी वह ही रहता है जो भौतिकसुख-दुःख दोनों को अस्थायी मानता है.....दुखी वह रहता है जो सुख या फिर दुःख इन में से किसी को स्थायी मानता है.दुखी-दुःख के कारण फांसी अदि लगता है,गलत कर्म करता है..इसलिए दुखी तोह रहता भी है..और गलत कृत्य करके और दुखी हो जाता है..और खुद के दुःख को ही निमंत्रण देता है..और जो सुख को अस्थायी मानता है है वह उलटे-सीधे कृत्य करने लगता है..जरा सा भी दुःख नहीं सह पाता..और जिसे दुःख सेन्हे के आदत हो वह सुखी रहता है....जो दोनों को स्थायी माने वह महान पुरुष होते हैं..अतीव पुरुषार्थी होते हैं..और जीवन में ऊंचाईयां पाते हैं.
कैसे करे सुख के इंतजाम..ऐसा क्या करें की सुख आये..या सुखी रहे
१.अनुकम्पा-अनुकम्पा के मायने हैं कि किसी दुसरे कि पीड़ा को देखकर अपने अन्दर वैसी ही पीड़ा होने लग जाए..वैसा ही दर्द होने लग जाए और इतना ही नहीं उस दुसरे के दर्द को दूर करने के यथा संभव प्रयत्न शुरू हो जायें..तोह वह अनुकम्पा है..अनुकम्पा और दया में बहुत अंतर है..क्योंकि दया से अर्थ है कि दुःख दूर करने का एक भाव आया..और अनुकम्पा से मतलब है उस दुःख को दूर करने के भाव आने के साथ यथा संभव उपाय भी किये गए..तोह यह अनुकम्पा है.हमारे साथ कोई अच्छा करे तोह उसके प्रति दया तोह आ ही जाती है..लेकिन कोई बुरा सोचे उसके प्रति भी वैसा ही व्यवहार करना...प्राणी मात्र को सुख देने कि भावना....तथा पुरुषार्थ का नाम अनुकम्पा है.
२.दान-किसी दुसरे के उपकार का ..निस्वार्थ भाव ऋण चुकाना..तथा इस जन्म के ही नहीं..पिछले जन्मों कि SOCH के..यह दान है..चाहे इसमें मेरा कुछ भी चला जाए...ऐसा करने से भी सुख मिटा है...किसी को किसी चीज कि जरुरत है..और वह किसी हिंसा कि कारण नहीं है...और मुझे उसे देने का भाव आया..उसके प्रति अनासक्ति आई,एक अनुकम्पा के साथ देने का भाव आया..और दिया..यह दान के मायने हैं.
३.सराग-प्राणी मात्र के रक्षा कि भावना..और उसमें भी खास तौर पे व्रतियों कि रक्षा कि भावना..व्रती यानी कि श्रावक या फिर मुनि..मेरे द्वारा उनके नियम में..व्रतों में..कोई विघ्न न आ जाए..या अन्य कोई विघ्न न डाले..और मेरी वजह से कोई दूसरा प्राणी दुविधा में न फस जाए या कोई प्राणी अगर किसी कि वजह से दुविधा में है..तोह मैं उसे बचा PAUN और यथा संभव उपाय करूँ..यह भी एक सुख का कारण है..इसमें कोई भी दुःख नहीं है.
४.संयम-इन्द्रिय और मन कि प्रवर्तियों को वश में करना..यह भी एक सुख कारण है..हम सोचते हैं..कि संयम से सब तोह छूट जायेगा...लेकिन ऐसा नहीं है..एक संयमी व्यक्ति जितना खुश रहता है..उतना आसक्त व्यक्ति खुश नहीं रह सकता..एक आदमी है उसे बिना कुलर सोने कि आदत है,एक दिन उसे नहीं मिला.तोह क्या वह दुखी रहेगा..कभी नहीं..ऐसा करने से वह अपने आगे के लिए सुख का इंतजाम तोह करेगा ही..और अध्यात्मिक सुख को भी प्राप्त होगा.
५.YOGAA-यह सब बाते हैं..अनुकम्पा.दान.सराग,संयम इन सब में LEEN REHNE का मतलब है योगा.
६.शांति-शांति से अर्थ है कषायों में मंदता..कषायों की कमी..जितने ज्यादा कषय होंगे उतना ज्यादा दुःख होगा..और कषय करके कोई व्यक्ति सुखी नहीं रहता..कषाय करने से इन्द्रिय और शरीर भी अस्वस्थ होता है..कषाय चार हैं १.क्रोध २.मान ३.माया ४.लोभ..यह चारों के चारो कषाय दुःख के कारण ही हैं..अशांति के कारण ही हैं..यह हम व्यवाहर रूप से देख सकते हैं की कोई लालची आदमी कभी सुखी नहीं रहता होगा..और दूसरी तरफ एक संतुष्ट आदमी सुखी रहता है..माया चारी करना तोह प्रकट रूप से दुखदायी हैं..और सबसे ज्यादा लड़ाई झगड़ों का कारण ही यही हैं..क्रोध के नुक्सान तोह वीतराग विज्ञान और भौतिक विज्ञान दोनों बताता है.न कषाय करने वाला भी दुखी ही रहता है....घमंड बुद्धि जो खा जाता है..यह चारो कषाय अशांति के ही कारण हैं...अतः इन्हें त्याग करने से शांति आएगी..इसलिए प्रशम भाव रखने चाहियें

७.शौच-शौच से तात्पर्य है पवित्र भावों का होना,सरल परिणामों का होना..निर्लोभ प्रवर्ती करना..जैसे की एक उदहारण है..एक भिखारी था एक दम निर्लोभ था,चाहे कुछ भी हो,हमेशा खुश रहता था..एक बार उस जगह जहाँ भिखारी रहता था..वहां चोर आ गए..चोर इसलिए आ गए क्योंकि वह खुश ही इतना रहता था..की कोई साहूकार भी क्या रहता होगा..भिखारी को पता चला की चोर आ गए..वह बड़ा खुश की पहली बार कोई उसके निवास स्थान पे मिलने आया..वह खिड़की के पास खड़ा हो कर बोलने लगा..की यह लोग मुझे बता कर ही आ जाते..तोह मैं इन्हें कुछ दे सकता..चोरों से कहा की आप मेरे यहाँ आये हो..तोह खाली हाथ नहीं जाने दूंगा..चोर भी आश्चर्य कर रहे की यह क्या?..आज तक चोर के यहाँ चोरी करते थे..आज पहली बार  साहूकार के यहाँ चोरी करने आये हैं...भिखारी ने जब भी उसे जाने नहीं दिया..कहीं से दूंढ के १० रूपये दे दिए..जब चोर जाने लगे तोह बहार बहुत ठण्ड थी..तोह भिखारी ने कहा की इतनी ठण्ड है कहाँ जा रहे हो..कम्बल ले जाओ..चोर ले गए..चोर माँ  के पास पहुंचा..माँ ने कहा ऐसा आदमी के यहाँ से ली हुई चीज नहीं फलेगी..चोर वापस घर आ गए उस भिखारी के.तोह देखा बेचारा अभी भी उनके भले की ही सोच रहा है..उन का मन पसीज गया..पैर पकड़ लिए भिखारी के और चोरी करना छोड़ दिया...यह होता होती है निर्लोभ परवर्ती...ऐसा गुण हमारे अन्दर आ जाये तोह कितना अच्छा हो..

आज हम पे जो भी है,कूलर,पंखा,..यह हमारे पूर्व जन्मों में किये गए पुरुषार्थ की वजह से है..इसलिए क्यों न ऐसा करें की हम उस आकुलता रहित सुख मोक्ष सुख को पाने के लिए कुछ पुरुषार्थ करें

लिखने का आधार-मुनि क्षमा सागर जी द्वारा दिए गए कर्म सिद्धांत पे प्रवचन.

जा वाणी के ज्ञान से सूझे लोकालोक,सो वाणी मस्तक नमो सदा देत हूँ ढोक.


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