Sunday, September 4, 2011

kashaay

परिणामों की कलुषता को कषाय कहते हैं....हम आखिर धर्म क्यों नहीं कर पाते...इसका कोई बाहरी कारण नहीं है..वह अन्दर का चरित्र मोहिनीय कर्म है...जो हमें नियम,व्रत,साधन,त्याग को नहीं करने देता है...जो हमने अपने प्रमाद के कारण ही अपने में बाँधा है...यानी की कारण मैं ही हूँ..धर्म न करने पाने का....बहार वाले तोह सिर्फ एक निमित्त मात्र हैं....जब हम थोडा धर्म करने की सोचते हैं..फिर भी नहीं करपाते...क्यों?..क्योंकि हमारे पीछे के अशुभ कर्मों के संस्कार...तीव्र कषायों के परिणाम स्वरुप हम धर्म नहीं कर पाते हैं...क्या है तीव्र कषाय?..आचार्य कहते हैं तीव्र कषाय बाहर से देखने में पता नहीं चलती हैं..तीव्र कषाय वाला व्यक्ति तोह वह भी हो सकता है जो चुप एक कमरे में रहता है..सबको वह भला मानुष लगता है...तीव्र कषाय से अर्थ है धर्म के प्रति गलत भावना..यहाँ तक की धार्मिकों के प्रति द्वेष..अशुभ भाव..उनको कष्ट देने के भाव..जो मेरे पिछले चारित्र मोहिनीय कर्म की वजह से आती हैं..और मैं इन कषायों के वशीभूत हो जाता हूँ..तोह आगे भी बांध जाती हैं...कषाय किसी भी रूप में आ सकता है...क्रोध के रूप में,मान के रूप में,अहंकार के रूप में...लोभ के रूप में...और यह कषाय आपस में भी एक दुसरे में बदल जाती हैं..जैसे लोभ से मायाचारी,मायाचारी से घमंड,और घमंड को ठेस पहुंची तोह क्रोध...या उल्टा भी हो सकता है..क्रोध से घमंड,घमंड के कारण...माया,माया के कारण लोभ आ गया...एक आदमी प्रवचनों में बैठा है..थोडा पढ़ा लिखा है...किसी ने कुछ कह दिया...क्रोध आ गया,और क्रोध से फिर घमंड आ गया..की यह मेरे आगे हैं कौन..अलग जाकर बैठ गया..किसी ने पुछा वहां से यहाँ क्यों आये..तोह झूठ बोल दिया....यानी की मायाचारी...और हो सकता है...धर्म को अलग तरीके से या सम्मान के लिए ही मानने लगा..यानी की लोभ....कभी कभी लोभ लोभ में परिवर्तित हो जाता है..आये थे प्रवचनों में थोडा आत्मा कल्याण के लालच (यह शुभ लोभ है)..और भावना बन गयी की मुनि-महाराज के पास जाने काम बन गया..सो अब आत्मा कल्याण के लिए नहीं काम बनाने के लालच में जाने लग गए और काम नहीं बना तोह नियम चरित्र सब छोड़ दिया...जो की मेरी अशुभ कषायों का ही नतीजा है...कषायों को शुभ भाव में इस्तेमाल करना चाहिए..आत्मा कल्याण के लालच वाला लोभ-लोभ नहीं है...क्योंकि इसमें मोह नहीं है...इस तरह से हम किसी अशुभ कषाय को शुभ में बदल सकते हैं..अगर हम चाहें तोह सबकुछ कर सकते हैं..जो सिर्फ हमारे पुरुषार्थ पे निर्भर करता है...हम चाहें तोह किसी अशुभ के लालच को धार्मिक लालच में बदल दें..लेकिन यह हमारा खुद का पुरुषार्थ है..यह चीज सिर्फ लोभ के लिए नहीं मान-माया और क्रोध के लिए भी लागू होती है...क्रोध तब आता है जब हमें अपेक्षित चीज नहीं मिलती...हम उसको किसी अलग भाव में ला सकते हैं..
यह तोह कषायों को कण्ट्रोल करने का पहला तरीका..दूसरा यह है की हम कषायों को टालने को कोशिश करें की अभी क्रोध नहीं करना अभी टाइम नहीं है..शाम को करूँगा...शाम तक क्रोध वैसे ही गायब हो जाएगा....हम अन्य चीजों के लिए भी तोह टाइम टेबल बनाते हैं..अभी किसी चीज का लालच नहीं है..जो भी लालच होगा कल देखूंगा...अभी घमंड छोड़ कर ५ मिनट बाद बोल लूँगा....हो सकता है ५ मिनट बाद ऐसा बोलने का मौका ही नहीं मिले..सामने वाला पहली ही माफ़ी मांग ले...जिससे हम कितने पापों से अशुभ कर्मों के आश्रव से बच सकते हैं. तीसरा यह है की हम ऐसे निमित्तों से बचें जिसके कारण हमें क्रोध आये,मान आये,माया आये,लोभ आये जैसे की शाम को ज्यादा गुस्सा आता है..शाम को जिन-मंदिर चले गए...मैं वहां जाऊँगा तोह गुस्सा करना पड़ेगा...उधर नहीं जाएँ...फलने इंसान को देखकर झूठ बोलना ही पड़ता है...नहीं जाएँ उसके पास,...जब भावों में अशुद्धता आये ,यानी की तीव्र कषाय आये...तोह उसे पुष्ट करने के वजाय मन कहीं और लगाए..जैसे की भजनों में प्रवचनों में...यह गुण अगर हम पालें तोह हम कषायों को बहुत कम कर सकते हैं..और कषाय ही हमें संयम अदि गुण प्रकट नहीं होने देता है.

लिखने का आधार-प्रवचन मुनि क्षमा सागर जी (कर्म सिद्धांत-भाग ११)

भाषा सम्बन्धी अशुद्दियां हों,प्रमाद के कारण,अल्प ज्ञान के कारण शब्द या उनके अर्थ निकालने में गलती हो...तोह सुधार कर पढ़ें...और बताएं भी...


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