Thursday, June 9, 2011

SHAKAHAAR AUR MANSAHAAR..............COMPARISON--BY PARMATM PRAKASH BHARILL


an answer to question arrised by sh shekhar chaturvedi-
शेखर चतुर्वेदी- मांसाहारियों का ये तर्क है की, हम लोग(शाकाहारी) भी वही करते हैं पेड़ पौधों के साथ |

क्या मांसाहार और शाकाहार में फर्क नहीं है ?

...तर्क की बात तो तर्क से ही करेंगे पर मैं आप से ही पूंछता हूँ क़ि क्या आपको स्वयं को मांसाहार और शाकाहार में फर्क नहीं लगता है ?
क्या आपको दोनों ही समान ही दिखाई देते हें ?
अरे एक छोटे से बच्चे से तो पूंछकर देखिये ,वो क्या कहता है .

अरे ! एक ओर वह जीता जागता प्राणी , अपनी जान बचाने के लिए भागता प्राणी , मदद के लिए और बख्स देने के लिए याचना भरी निगाहों से आपकी ओर ताकता प्राणी , चोट लगने पर दर्द और पीड़ा से तड़पता प्राणी , छटपटाता प्राणी और उसके मर जाने के बाद भी उसके लिए रोने -बिलखने बाले प्राणी .
दूसरी ओर सामान्य वनस्पति ,जहां यह सब नहीं है .
क्या दोनों ही एक ही श्रेणी में आते हें ?

सर्वोत्कृष्ट शाकाहार है सूखा हुआ अनाज.
भोजन के लिए अनाज की खेती की जाती है ,इस प्रक्रिया में पौधा अपना पूरा जीवन जी लेने के बाद जब स्वयं मर जाता है ,सूख जाता है तब फसल काटकर अनाज प्राप्त किया जाता है ,इस प्रकार इसमें उस पौधे ने अपनी पूरी लाइफ साइकल complete करली है ,उसके साथ कोई अन्याय नहीं किया गया है वल्कि उसे पाला पोसा ही गया है .

उक्त तर्क से प्रेरित होकर यह तर्क करना उचित नहीं है क़ि इस प्रकार क्या स्वयं मरे हुए पशुओं का मांस खाया जा सकता है ? क्योंकि मांस में प्रतिपल अनन्त जीवों की उत्पत्ति होती ही रहती है इसलिए उसमें मात्र उस एक प्राणी की ही हिंसा नहीं है वरण अन्य अनेकों जीवों की भी हिंसा व्याप्त है .

दूसरा उत्कृष्ट आहार है वे फल जो स्वयं पाक कर पेड़ पर से गिर जाते हें .
इस प्रक्रिया में पेड़ के जीवन को तो कोई खतरा है ही नहीं, किसी भी प्रकार की पीड़ा भी नहीं होती है .

तीसरे प्रकार का उत्कृष्ट शाकाहार है वे फल व सब्जियां जिनके उत्पादन के लिए पेड़ पौधे लगाए जाते हें और उनके फल तोड़कर भोजन के काम में लिए जाते हें .
इसमें भी कच्चे और अविकसित फलों की अपेक्षा पके हुए और पूर्ण विकसित फलों के सेवन को वेहतर माना गया है .
इस प्रक्रिया में पेड़-पौधे को फल तोड़ने पर थोड़ी पीड़ा तो अवश्य होती है पर न तो उसके जीवन को कोई ख़तरा है और ना ही उसकी जीवन प्रक्रिया में कोई बाधा.वह सम्पूर्ण ही बना रहता है ,उसके अस्तित्व में कोई कमी नहीं आती, अंत में वह अपना सम्पूर्ण जीवन जी लेने के बाद काल क्रम में स्वयं मृत्यु को प्राप्त होता है .
इस प्रक्रिया में एक एक वृक्ष अनेकों , सेकड़ों ,हजारों या लाखों प्राणियों का पोषण करता है और स्वयं भी संकट मुक्त बना रहता है .
यदि किसी प्राणी का कोई अंग तोड़कर हम लेलेते हें तो एक तो उसे अनन्त पीड़ा होती है .
दूसरा उसका अंग हमेशा के लिए भंग हो जाता है .
वह अंग विहीन अपंग हो जाता है .
वह आधा अधूरा हो जाता है .
उसका जीवन क्रम सामान्य नहीं रहता .
हो सकता है क़ि उस अंग को खो देने के बाद उसे स्वयं के पोषण की भी समस्या खड़ी हो जाए ,वह भाग -दौड़ और कोई अन्य प्रयत्न न कर सके और वह भोजन के अभाव में ही मर जाए .

अब चौथे नंबर उन वनस्पतियों का आता है जिन्हें मात्र जड़-मूल को छोड़कर पूरे पौधे को काटकर उपयोग किया जाता है ,जैसे पालक , इस प्रक्रिया में पौधा मरता तो नहीं है ,पुन: बढ़ने लगता है ,पर एक-एक प्राणी की भूंख मिटाने के लिए अनेकों पौधों का उपयोग हो जाता है .

इस प्रकार उक्त प्रकार के शाकाहार में पौधों को या तो कोई हानि होती ही नहीं है और होती है तो चोट लगने की पीड़ा होती है जीवन की हानि नहीं होती है .

पांचवे नंबर पर वे पौधे आते हें ,जिन्हें जड़ सहित उखाड़कर भोजन के काम में लिया जाता है .
यह जघन्य किस्म का शाकाहार है .इस प्रक्रिया में पौधे की जान तो जाती ही है साथ ही एक -एक प्राणी के भोजन में अनेकों पौधे वलिदान हो जाते हें .
इस शाकाहार में भी अन्य जीवों का घात न होने से इसकी तुलना किसी भी तरह से मांसाहार से नहीं की जा सकती है .

इस प्रकार हम पाते हें क़ि शाकाहार की तुलना मांसाहार से करना और दोनों को ही समान ठहराना अनुचित व अविवेक पूर्ण कृत्य है.



 BY-परमात्म प्रकाश भरिल्ल.

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