Tuesday, July 12, 2011

6 DHAALA-DOOSRI DHAAL-COMPLETE

६ ढाला


दूसरी ढाल

संसार भ्रमण का कारण

ऐसे मिथ्यादृग ज्ञान चर्ण ,बस भ्रमत भरत दुःख जन्म मर्ण
ताते इनको ताजिये सुजान,सुन तिन संक्षेप कहूँ बखान


शब्दार्थ

१.मिथ्यादृग -मिथ्या दर्शन
२.चर्ण-चरित्र
३.बस-वशीभूत हो-कर
४.मर्ण -मरण के
५.भरत-भोग रहा है
६.ताते-इसलिए
७.सुजान-बहुत अच्छी तरह से जान कर
८.ताजिये-त्याग कीजिये.
९.तिन-इन तीनों का (मिथ्या दर्शन-ज्ञान-चरित्र का)
१०.संक्षेप-कम शब्दों में

भावार्थ
हमने पिछली ढाल में जाना के यह जीव जन्म मरण के दुखो को भोगता रहता है,और अनादी काल से भोगता आया है,इसका एक कारण तोह हमने पहली ढाल में ही जाना की इस जीव ने मोह रुपी महा मदिरा पी राखी है,जिसके कारण वेह संसार में भटक रहा है,यानी कि हम भी संसार में इसी के कारण भटक रहे हैं,अब कविवर ने इसका दूसरा कारण यह भी बताया है कि हमने मिथ्या दर्शन-ज्ञान-चरित्र को अपने लिया है,यह जीव अनंत काल से मिथ्या दर्शन-ज्ञान-चरित्र का पोषण कर रहा है,और इन मिथ्या ज्ञान चरित्र के वश में आकर संसार में भ्रमण कर रहा है और जन्म मरण के दुखों को सेहन कर रहा है,भोग रहा है,इसलिए कवि कह रहे हैं कि इनको ताजिये,इसीलिए इनका त्याग कीजिये....कवि कह रहे हैं...अब मैं इन तीनो (मिथ्या दर्शन-ज्ञान-चरित्र) का संक्षेप में वर्णन कर रहा हूँ.


अग्रहीत मिथ्यादर्शन और जीव तत्व का स्वरुप

जीवादि प्रयोजनभूत तत्व,सार्धे तिन माहि विपर्ययत्व
चेतन का है उपयोग रूप,बिन मूरति चिनमूरति अनूप.

(इस दोहे में पहली पंक्ति में SHARDHE शब्द सही से प्रिंट नहीं हो पा रहा है,क्षमा करें )

शब्दार्थ
१.जीवादि-जीव अदि सात तत्व (जीव,अजीव,आश्रव,बांध,संवर,निर्जरा और मोक्ष)
२.प्रयोजनभूत-सार भूत तत्व
३.सार्धे-श्रद्धां करता है
४.तिन-इनका
५.विपर्ययत्व-विपरीत,उल्टा
६.चेतन-जिसका स्वाभाव जानना और देखना है
७.उपयोग रूप-जीव का स्वाभाव उपयोग रूप है,जानना और देखना उपयोग मय है.
८.बिन मूर्ती-अमूर्तिक
९.चिन मूर्ती-चैतन्य स्वरुप
१०.अनूप-उपमा रहित है,वर्णन रहित है.

भावार्थ

कवि कहते हैं की जो यह जीवादि सात तत्व हैं यह प्रयोजन भूत तत्व हैं,यानी की सार भूत तत्व हैं,इनका उपयोगी स्वाभाव है,लेकिन इनमें यह जीव विपरीत श्रद्धां करने लगता है,और जीव अदि सात तत्वों को व्यर्थ का मानने लगता है,या मानता ही नहीं है...यही अगृहीत मिथ्यादर्शन है..चेतन जिसका स्वाभाव जानना और देखना है,यह उपयोग मय हैं,इसके ज्ञान और दर्शन हर समय उपयोग में लगे होते हैं,यह चेतन अमूर्तिक है,यानी की कोई स्वरुप नहीं है,और यह चेतन चैन्तान्य मय है,आनंद मय है,और इस जीव तत्व की उपमा नहीं है,यानी की यह अनुपम है,अवर्णनीय है,इसमें रंग गंध तोह है नहीं इसलिए इसका वर्णन नहीं कर सकते हैं...यही सच्चा श्रद्धां है जीव तत्व का.

६ ढाला

जीव तत्व का सच्चा श्रद्धान और विपरीत श्रद्धान


पुद्गल,नभ,धर्म,अधर्म,काल,इनतैं न्यारी है जीव चाल
ताको न जान विपरीत मान,करि करै देह में निज पिछान.

शब्दार्थ
१.नभ-आकाश द्रव्य
२.इनतैं -इन पांचो से
३.ताको-इस बात को
४.विपरीत-उल्टा
५.देह-शरीर
६.पिछान-पहचान

भावार्थ
यह जीव पुद्गल,नभ,धर्म,अधर्म और काल से त्रिकाल भिन्न है,यानि की इनकी वजह से जीव द्रव्य का स्वाभाव नहीं बदलता है,जीव की चाल इन पाँचों से अलग है,जैसे धर्म का काम जीव और पुद्गल को चलाना है,अधर्म का काम जीव और पुद्गल को स्थिर रखना है,काल द्रव्य भी निश्चय और व्यवहार दो प्रकार का होता है,लेकिन जीव द्रव्य का स्वाभाव इन से त्रिकाल भिन्न है,लेकिन यह अज्ञानी जीव (हम) इस बात को नहीं जानते हैं,और जानते हुए भी अनजाने हो जातें हैं और विपरीत मान्यता करने लगते हैं,और अपनी पहचान इस पुद्गल शरीर से करते हैं..हम खुद को शरीर मानते हैं,लेकिन जीव तत्व का सच्चा श्रद्धान यह है की मैं जीव हों,और मेरा स्वाभाव जानना और देखना है,मैं पर द्रव्यों से भिन्न हूँ.


मिथ्यादर्शन के प्रभाव से जीव की पर पदार्थ के प्रति आसक्ति और विचार

मैं सुखी,दुखी,मैं रंक,राव,मेरे गृह धन गोधन प्रभाव,
मेरे सुत तिय मैं सबलदीन,मैं सुभग,कुरूप,मूरख प्रवीन.

शब्दार्थ

१.रंक-गरीब
२.राव-राज
३.गोधन-गाय बैल
४.प्रभाव-बड़प्पन
५.सुत-पुत्र
६.तिय-स्त्री
७.सबल-ताकतवर
८.दीन-कमजोर
९.सुभग-सुन्दर
१०.कुरूप-बदसूरत
११.मूरख-बेबकूफ,अज्ञानी
१२.प्रवीन-बुद्धिमान

भावार्थ
यह जीव मिथ्या दर्शन के प्रभाव से और जीव तत्व का विपरीत श्रद्धान करने के कारण अपने आप को पर वस्तुओं के सदभाव में सुखी मानता है,और पर वस्तुओं के अभाव में दुखी मानता है,अपने आप को धनी मानता है,४ मंजिला घर,इमारत को अपना मानता है,गे भैंसों को अपना मानता है,जिस स्त्री से विवाह किया है उससे खुद का मानता है,स्त्री को मेरी स्त्री बोलता है,पुत्र को अपना पुत्र मानता है,पर वस्तुओं को अपना मानता है,अपने आप को ताकतवर और कमजोर मानता है,शरीर की सुन्दरता के कारण खुद को सुन्दर मानता है और शरीर की बदसूरतता के कारण खुद को बदसूरत मानता है,अपने आप को ज्ञानी मानता है,और अज्ञानी या मूरख मानता है....बल्कि सच तोह यह है की घर,मकान वगरह तोह पर पदार्थ हैं,इससे जीव के स्वाभाव में कोई अंतर नहीं पड़ता है,इन से जीव की चाल अलग है,न पुद्गल पदार्थ इस जीव को दुःख दे सकते हैं लेकिन यह जीव राग-द्वेष भावों के कारण पर पदार्थों में सुख और दुःख मानता है,और यह कहना चाहिए की यह राग और द्वेष ही जीव को दुखी करते हैं.ऐसा विपरीत श्रद्धान करके यह जीव व्यर्थ ही दुखी रहता है और शोकाकुल रहता है.

अजीव तत्व और आश्रव तत्व का विपरीत श्रद्धान

शरीर उपज अपनी उपज मान,शरीर नशत आपनो नाश मान,
राग अदि भाव प्रकट दुःख देन,तिन्ही को सेवत गिनत चैन.

शब्दार्थ
१.उपज-उत्पत्ति
२.नशत-मरण,नाश
३.आपनो-अपना,खुद का
४.प्रकट-दिखाई देते हैं,साफ़ प्रतीत होते हैं
५.तिन्ही -राग द्वेष भावों को
६.गिनत-मानता है
७.चैन-सुख

भावार्थ

यह जीव मिथ्यादर्शन के प्रभाव से शरीर की उत्पत्ति को अपनी(निज आत्मा स्वरुप) की उत्पत्ति मानता है,और शरीर के मरण को,शरीर की बीमारी,शरीर के रोगों को और शरीर के नाश को अपना खुद का नाश मानता है(निज आत्मा स्वरुप का नाश मानता है),आत्मा तोह अजर अमर है,लेकिन यह मिथ्यादृष्टि (हम) शरीर की जन्म तारीख को अपनी खुद की (आत्मा) की जन्म तारीख गिनता है,और मृत्यु से पहले विलाप करता है,यह भूल जाता है की शरीर के मरने से आत्मा नहीं मर जायेगी,और तरह तरह का विलाप करता है,यही अजीव तत्व का विपरीत श्रद्धान है,अब आश्रव तत्व का विपरीत श्रद्धान यह है की जो यह राग और द्वेष के जो भाव हैं यह प्रकट ही दुःख दायीं हैं,साफ़ ही दुःख देने वाले प्रतीत होते हैं,हम अपनी किसी वस्तु से राग करते हैं,फिर वेह ख़राब हो जाती है,फिर हम रोते हैं,आत्र ध्यान करते हैं,और दुखी ही होतें है,यानी की हमारा किसी चीज के प्रति राग ही दुःख देता है,एक दम वैसे ही द्वेष के भाव भी दुःख दायीं हैं,हम किसी से द्वेष करें,उसका बुरा भला सोचते हैं,और बाद में हम उसी से दोस्ती कर लेते हैं,और बेफाल्तू में दुखी ही होते हैं,इन्द्रियों को भी कष्ट में डालते हैं,लेकिन यह जानने के बाबजूद भी संसार के घात-प्रतिघात में लीन रहते हैं,और उन्ही के सेवा में आनंद और सुख-चैन गिनते हैं,यानि की मानते हैं,यह आश्रव तत्व का विपरीत श्रद्धान है...जिनेन्द्र भगवान् राग और द्वेष से पूर्णत मुक्त हैं,इसलिए उन्हें वीतरागी बोलते हैं.


बंध और संवर तत्व का विपरीत श्रद्धान

शुभ अशुभ बंध के फल-मंझार,रति-अरति करे निजपद विसार,
आतम हित हेतु विराग ज्ञान,ते लखै आपको कष्टदान



शब्दार्थ
१.बंध-कर्मों का आत्मा के प्रदेशों में एकमेव होकर मिल जाना.
२.मंझार-में
३.रति-हर्ष,ख़ुशी
४.अरति-दुःख,विलाप,शोक
५.निजपद-दर्शन और ज्ञान स्वाभाव
६.विसार-भूल कर
७.विराग-वैराग्य धर्म की बातें
८.लखै-लगता है
९.कष्टदान-दुःख दाई,परेशान करने वाला


भावार्थ

कवि कहते हैं की यह मिथ्यादृष्टि जीव मिथ्या दर्शन के प्रभाव से शुभ कर्मों के बंधन में और शुभ कर्मों के फल में रति करता है,और अशुभ कर्मों के फलों में अरति करता है,यानि की दुखी होता है,ऐसा लक्षण अज्ञानियों का ही होता है,बल्कि जो ज्ञानी होते हैं,वह यह अच्छे से जानते हैं की पुण्य और पाप दोनों संसार को बढ़ने में कारण हैं,लेकिन यह जीव शुभ कर्मों का बंधन ही चाहता है,कर्मों का नाश नहीं चाहता है,हम मंदिर जाएँ तोह यह भाव कभी न रखें की शुभ कर्मों का बांध होगा,लेकिन यह भाव रखें की कर्मों का नाश हो,और परिणामों में सरलता आये,लेकिन यह जीव शुभ कर्मों के फल में ही रति करता है,शुभ को ही हितकारी मानता है,यही बंध तत्व का विपरीत श्रद्धान है,संवर तत्व का विपरीत श्रद्धान यह है की यह जीव कर्मों के द्वार को बंद करना नहीं चाहता है,कर्मों का बंध हो ,ऐसे ही भाव रखते हैं,लेकिन कर्मों को बंध से रोकना ही संवर है,और इस संवर तत्व के विपरीत श्रद्धान में यह जीव कर्मों के बंध को रोकना दुःख दाई मानता है,और इसलिए यह वैराग्य-धर्म-वीतरागता,जो आत्मा के लिए हितकारी हैं,उन्हें कष्ट दाई मानता है..इन धर्म की बातों को तत्व चर्चा को दुःख दाई गिनता है,यानि के जीव कर्मों के बंध को रोकना यानि की संवर नहीं करना चाहता है.यही संवर तत्व का विपरीत श्रद्धान है.



निर्जरा,मोक्ष तत्व का विपरीत श्रद्धान और अग्रहित मिथ्याज्ञान,आग्रहित मिथ्याचरित्र का स्वरुप
रोके न चाह निज शक्ति खोय,शिवरूप निराकुलता न जोय,
याही प्रतीतिजुत कछुक ज्ञान,सो दुःख दायक अज्ञान जान.

इन जुत विषयन में जो प्रवर्त ताको जानो मिथ्याचरित्र,यों
मिथ्यात्व अदि निसर्ग जेह,अब जे गृहीत सुनिए सु तेह

शब्दार्थ
१.चाह-
पाचों इन्द्रिय के विषय
२.शिव रूप-मोक्ष रूप,मोक्ष,सिद्ध स्वरुप
३.निराकुलता-दुःख से रहित
४.जोय-होता है
५.याही-यह
६.प्रतीति-विश्वास
७.जुट-अग्रहित मिथ्यादर्शन
८.कछुक-थोडा सा

भावार्थ
कवि कहते हैं कि जो हम पंचेंद्रियों के विषयों में लीं रहते हैं,अपनी चाह को नहीं रोकते हैं,नियम अदि नहीं लेते हैं,कर्मों के बांध को ही शुभ मानते हैं,और कर्मों कि निर्जरा नहीं चाहते हैं,और अपनी अनंत शक्ति को भूल कर शारीर में लीं हो जाते हैं यहि निर्जरा तत्व का विपरीत श्रद्धान है,मोक्ष तत्व का विपरीत श्रद्धान यह है कि मोक्ष में आकुलता होता है,ऐसा श्रद्धान करना मोक्ष तत्व का विपरीत श्रद्धान है,इसका सच्चा श्रद्धान यह है कि ..संसार में हर जगह दुःख है,चाहे स्वर्ग हो,चाहे नरक हो हर जगह दुःख ही दुःख है,आकुलता है,लकिन मोक्ष में कोई आकुलता नहीं है,लेकिन अज्ञानी जीव मोक्ष में आकुलता को मानता है,वेह सोचता है कि भला इन्द्रियों के बिन सुख कहाँ से आएगा?,पंचेंद्रियों के विषयों के बिना सुख कहाँ से होगा,बीबी बच्चों के बिना सुख कैसे होगा,जैसे कि अन्य धर्मों में स्वर्ग में ही मोक्ष बता दिया है..और उनके धर्म में उनके भगवन के बच्चे होते हैं,शादी शुदा होते हैं?क्योंकि वेह सोचते हैं कि बीबी बच्चों के बिन सुख कहाँ से होगा..इस तरह के प्रश्न करना मोक्ष तत्व का विपरीत श्रद्धान है...लेकिन ज्ञानी लोग बहुत अच्छे से जानते हैं कि आत्मा का स्वाभाव अनंत-दर्शन ज्ञान है...हर जीव सुख चाहता है..और वेह असली सुख बिन आकुलता का ही है..इन्द्रियों में तोह दुःख ही दुःख है,क्योंकि इन्द्रियों में तोह आकुलता हो होती है.....अतः मोक्ष में आकुलता मानना मोक्ष तत्व का विपरीत श्रद्धान है,उल्टा श्रद्धान है...यह सातों तत्वों का विपरीत श्रद्धान का वर्णन पूरा हुआ ...अब इन सातों तत्वों के विपरीत श्रद्धान के साथ जितना भी ज्ञान है,यह अग्रहित मिथ्याज्ञान है....और यह अग्रहित मिथ्याज्ञान अति-दुःख दायक है.और इस अग्रहित-मिथ्या दर्शन और अग्राहित मिथ्याज्ञान के साथ विषयों में प्रवर्ती करना ही अग्रहित मिथ्याचरित्र है...अब अग्रहित मिथ्यात्व का वर्णन हुआ....अब गृहीत मिथ्यात्व के बारे में जानते हैं

गृहीत मिथ्यादर्शन और कुगुरू का स्वरुप

जो कुगुरू,कुदेव,कुधर्म सेव पोषे चिर दर्शन-मोह एव,
अंतर रागादिक धरैं जेह,बहार धन अम्बर ते सनेह
धारे कुलिंग लही महत भाव ते कुगुरू जन्म-जल उपल नाव.

SHABDARTH

१.कुगुरू-खोटे गुरु
२.कुदेव-खोटे देवी-देवता
३.कुधर्मं-खोता धर्म,झूठा धर्म
४.पोषे-पुष्ट करता है,मजबूत या बलवान करता है
५.चिर-काफी लम्बे समय तक
६.दर्शन-मोह - दर्शन मोहनिया कर्म
७.एव-और
८.अंतर-अन्दर,मन में
९.धरैं-धारण करते हैं
१०.सनेह-प्रेम आसक्ति
११.कुलिंग-खोटा या झूठा वेष
१२.लही-रख्रे हैं
13.महत्-महंत पाना,साधू पाना,बड़प्पन
१४.उपल-पत्थर


भावार्थ

जो कुगुरू,कुदेव और कुधर्मं की सेवा करता है,चाहे धन के लिए,चाहे तन के लिए,चाहे स्त्री के लिए,चाहे किसी के कहने पर,चाहे अज्ञान वश...वह मनुष्य अपना नुक्सान खुद ही करता है..और अनंत काल तक दर्शन मोहिनीय कर्म की परत को अपनी आत्मा में और मजबूत करता है..और तरह तरह के दुखों को सहन करता है...यह कुगुरू,कु-देव और कुधर्म का सेवन बहुत दुःख दाई है..इनको पूजने से धन-संपत्ति अदि कुछ नहीं मिलती है..बस दर्शन मोहनिया कर्म की चादर आत्मा में मजबूत होने कें कारण,जो अन्य शुभ कर्म हैं..वह उसी समय अपना बहुत कम असर देकर निकल जाते हैं..और साथ की साथ अशुभ कर्मों का बंध होता है..लेकिन हम अज्ञानी जीव सोचते हैं की इन देवी-देवताओं ने,गुरु जी ने हमको बहुत कुछ दे दिया..लेकिन सच तोह यह है कि जिन शुभ कर्मों का फल यह जीव काफी अच्छी तरह से भोगता..उन शुभ कर्मों को अशुभ कर्मों कि बहुत होने या बहुमत बनने के कारण बहुत कम भोगता है..यानि कि इन कुदेव-धर्म-कुगुरू का श्रद्धान इस जीव को अनंत दुःख दाई है..इन का सेवन करना गृहीत मिथ्यादर्शन है.जो गुरु अन्दर मन में तोह राग और द्वेष के भाव रखते हैं,यानी कि किसी को आशीर्वाद तोह दुसरे को श्रांप दे रहे हैं...जो हाथ नहीं जोड़ रहा उससे गुस्सा हो रहे हैं,श्रांप दे रहे हैं...संसार के घात-प्रतिघात में लीं हैं..कुदेवों को पूजते हैं...वाहर वस्त्र पहने हुए हैं..और धन अदि से आसक्ति करते हैं...खोटे-खोटे वेशों को धारण करते हैं,जैसे माथे पे चन्दन लगा लिया,और अन्य खोटे-खोटे भावों को धारण करते हैं..अपना बड़प्पन दिखातें हैं..जैसे "जो मुझे पूजेगा वह सुखी रहेगा,अन्य दुखी रहेगा" ऐसे अपनी प्रशंसा खुद करते हैं......ऐसा श्रद्धान करने वाले कुगुरू हैं...और यह संसार रुपी सागर में पत्थर कि नाव के सामान हैं जो खुद तोह डूबती ही है,और अपने आश्रितों को भी डुबाती है..अतः इनसे बचना चाहिए.

कुदेवों का स्वरुप

जे राग द्वेष मल करि मलिन,वनिता गदादिजुत चिन्ह चीन
ते हैं कुदेव तिनकू जो सेव,शठ करत न तिन भाव भ्रमण छेव.

शब्दार्थ

१.मल-गंध्गी
२,मलिन-सने हुए,गंधे हो रखे हैं
३.वनिता-स्त्री
४.गदादिजुत-गदा,तलवार अदि अस्त्र शस्त्र
५.चिन्ह-लक्षण
६.चीन-पहचाने जाते हैं
७.कुदेव-खोटे,झूठे देव
८.तिन्कू-इन कुदेवों की
९.सेव-सेवा करना,पूजा करना,श्रद्धान करना,अनुमोदन करना,हाथ जोड़ना
१०.शठ - मूर्ख
११.तिन-उसके
१२.भाव-भ्रमण-संसार के भ्रमण
१३.छेव-अंत
१४.न-नहीं

भावार्थ
जो देवी-देवता मन में तोह राग-द्वेष रुपी मैल मलिन हैं,जैसे अपनी पूजा करवाते हैं,क्रोधित हो जाते हैं,मानी हैं,मायाचारी हैं,छली हैं,कपटी हैं,धन संपत्ति अदि अपने पास रखे हें हैं,वस्त्रों को धारण किये हुए,पूजने वाले से क्रोध नहीं जताते हैं,न पूजने वालों से क्रोध जताते हैं,हिंसा अदि कार्यों को करवाते हैं (चाहे त्रस हिंसा हो,स्थावर हिंसा हो या अन्य भाव हिंसा)अपने आप को ज्ञानी,इश्वर,परम-ब्रह्मा बताते हैं..अथार्थ राग द्वेष रुपी मैल से मलिन हैं,मुद्रा भी क्रोध की है...,अपने साथ स्त्री को रखते हैं,गदा,तलवार,धनुष-तीर,अदि अस्त्र-शस्त्रों के नाम से पहचाने जाते हैं,जानवार अदि वाहन होते हैं..और कई प्रकार के हिंसा से मलिन हैं...अब हम खुद सोचें इन देवी-देवताओं का स्वरुप अगर सच्चा होता,निर्भय होता तोह हाथ में अस्त्र-शास्त्र क्यों रखे हैं?,क्या किसी से दर लग रहा है,या डराना चाह रहे हैं,अस्त्र-शास्त्र तोह कमजोर ही रखता है,वस्त्र क्यों पहने हैं? क्या ठण्ड लग रही है,या गर्मी लग रही है? या मोह-माया में पड़े हैं,यानि की शरीर से असाक्ति खुद इतना रखते हैं,और भक्तों से कहते हैं मोह-माया छोड़ो ,इन कुदेवों पे अगर कोई शक्ति होती तोह अस्त्र-शास्त्र क्यों रखते,एक देव का नाम (जो नहीं बताना चाहता) जो अन्य धर्मों में हमने सुना होगा...शनि देव की सादे-साती आ गयी तोह ७.५ साल तक पेड़ के नीचे छिपे रहे,डर के मारे,और इस बात का वर्णन उन धर्मों के शास्त्रों में है,खुदने किसी को वरदान दे दिया,अब जिसने वरदान लिया खुद इनके पीछे पड़ गया,और यह डर-कर भागते रहे..हमें यह बात समझ नहीं आती,एक वीतरागी भगवान हैं,न अस्त्र है,न वस्त्र,न डर है,न मोह है,न काम है,न माया है..१८ प्रकार के दोषों से रहित हैं,कहाँ कुदेव हैं जिन्हें राक्षसों द्वारा बंधन में भी जकड लिया,स्त्री,पुत्र अदि मोह-माया में रहते हैं..और खुद को इश्वर बताते हैं......,दूसरी बात इनको पूजने से दर्शन-मोहनिया कर्म का वंध न हो,ऐसा हो नहीं सकता,तीसरी बात इन कुदेवों के दर्शन करते ही हिंसा-नंदी रौद्र ध्यान उत्तपन हो जाता है,जो नरक गति का कारण है,चौथी बात जो देव खुद-गृहस्थी,स्त्री बच्चों के मोह में पड़े हैं,तोह उनमें और हममे अंतर ही क्या रहा,छठी बात इन देवों के निमित्त से कितने त्रस जीवों की,स्थावर जीवों की हिंसा होती है..इसका अंदाजा लगाना बहुत मुश्किल है,आलू-अदि अभक्ष्य पदार्थ स्वीकार करते हैं,ग्रहण करते हैं,करवाते हैं..निश्चित ही खुद भी नरक गति का वंध करते हैं और करवाते हैं,सातवी बात-यह कुदेव बहुत ज्यादा हिंसक प्रवर्ती के होते हैं,क्रोधी और राक्षसों का बध करते हैं,मारने के बाद खून पी जाते हैं,फिर सबको आशीर्वाद देंगे,अपने आप को नरक गति का बंध करते हैं..और पूजने वाले को भी इसमें आनंद मनवा कर नरक ही ले जाने में निमित्त बनते हैं..इन देवों को आत्मा-अनात्म का ज्ञान ही नहीं होता,और क्षमा अदि १० धर्म तोह दूर-दूर तक मौजूद नहीं होते हैं...कर्म सिद्धांत का ज्ञान ही नहीं होता..और तत्वों से अज्ञानी होते हैं,तत्वों के अजानकार होते हैं,यानी की बहिरात्मा भी होते हैं..और साथ की साथ नील-लेश्या धारण करते हैं...अतः ऊपर लिखित किसी एक लक्षण को धारण करने वाले कुदेव हैं,उनके पूजने वाले मूर्ख,अज्ञानी का संसार परिभ्रमण का अंत नहीं है..अनंत काल तक मिथ्यात्व का पोषण ही करता रहता है..सम्यक दृष्टी जीव तोह इन देवों की हाथ अदि जोड़ना तोह बहुत दूर की बात है,मन-वचन-काय त्रियोग से प्रशंसा भी नहीं करते है,क्योंकि ऐसा करने से भी उसके सम्यक्त्व में दोष लग जाता है...अतः आचार्यों ने इन कुदेवों के सेवा करने वाले को "शठ(मूर्ख)" की संज्ञा दी है....अतः इनसे बचो.

कुधर्मों का स्वरुप

रागादिक भाव-हिंसा समेत,दर्वित,त्रस,थावर मरण खेत
ते क्रिया तिन्हे जानहु कुधर्म,सरधे तिन्हे जीव लहैं अशर्म
याकु गृहीत मिथ्यात्व जान,अब सुन गृहीत जो है अज्ञान.


शब्दार्थ
१.रागादिक-राग,द्वेष,इर्ष्या और मोह
२.दर्वित-द्रव्य हिंसा
३.त्रस-त्रस जीवों की हिंसा
४.थावर-स्थावर जीवों की हिंसा
५.मरण-मृत्यु,हिंसा
६.खेत-स्थान
७.तिन्हे-इन क्रियायों को
८.लहै-प्राप्त करता है
९.अशर्म-दुःख
१०.याकु-इन कुदेव,कुगुरू और कुधर्म की पूजा,सेवा,श्रद्धा,हाथ जोड़ना,पूजना
११.गृहीत-उपदेश से ग्रहण किया हुआ
१२.मिथ्यात्व-झूठ
१३.अज्ञान-गृहीत मिथ्याज्ञान

भावार्थ
जो धर्म रागादिक भाव-हिंसा से लिप्त हैं,यानी की मोह-माया को उत्तम बताया,राग-द्वेष को उत्तम बताया है..या ग्रहण करने योग्य बताया है और द्रव्य हिंसा,त्रस जीवों की हिंसा,स्थावर जीवों की हिंसा में धर्म बताया है,और इन क्रियाओं में पुण्यार्जन बताया है,उत्तम कहा,एकेंद्रिया हिंसा का निषेद नहीं बताया है..और त्रस हिंसा निरंतर बताई गयी है...तथा किसी को दुःख-देना,पीड़ा पहुचना,कष्ट पहुँचाने में धर्म बताया है,यानी की हिंसा में धर्म बताया है,जैसे लड़ाई अदि करना,झगड़ना,इर्ष्या करना...यह सब क्रियाएँ जितनी भी हैं यह सब कुधर्म हैं..मिथ्या धर्म है,खोटा धर्म है..अगर देखा जाए तोह जो धर्म पंचेंद्रिया हिंसा में धर्म बताते हैं...उन्हें तोह धर्म का दर्जा ही नहीं दिया जाना चाहिए..अथार्थ यह जितनी भी भाव हिंसा,द्रव्य हिंसा,थावर हिंसा से परिपूर्ण क्रियाएं है वेह सब कुधर्म है..और इन कुधर्मों पर विश्वास रखने वाला जीव,श्रद्धा रखने वाला जीव,हाथ जोड़ने वाला जीव सिर्फ दुःख को ही प्राप्त करता है..और अनंत काल तक दर्शन मोहनिया कर्म का ही बंध करता है..और तरह-तरह के जन्म-मरण के दुखों को भोगता है...इन कुदेवों,कुधर्म,और कुगुरू का श्रद्धान करना,सेवा करना,हाथ-जोड़ना अदि यह क्रियाएं हैं,यह गृहीत मिथ्यात्व है..और यह अत्यंत दुःख को प्राप्त करने वाली हैं..इसलिए इनसे बचो..अब गृहीत मिथ्याज्ञान का वर्णन करते हैं.(अगले श्लोक में).

गृहीत मिथ्याज्ञान का स्वरुप

एकान्तवाद दूषित समस्त,विषयादिक पोषक अप्रशस्त
कपिलादी रचित श्रुत को अभ्यास,सो है कुबोध बहु दें त्रास

गृहीत मिथ्यचरित्र का स्वरुप

जो ख्याति लाभ पूजादि छह,धरि कारन-विविध-विध देह्दाह
आतम अनातम के ज्ञान हीन,जे-जे करनी तन कारन छीन

कवि का मिथ्यात्व त्यागने का उपदेश

ते सब मिथ्यचरित्र त्याग अब निज आतम के पंथ लाग
जगजाल भ्रमण को देहु त्याग,अब दौलत निज आतम सुपाग


शब्दार्थ

१.एकान्तवाद-एकांत पक्ष
२.दूषित-गंध
३.समस्त-हर तरफ से
४.विषयादिक-पाँचों इन्द्रिय के विषय,मोह,माया,राग और द्वेष
५.पोषक-पुष्ट करने वाला
६.अप्रशस्त-खोटा
७.कपिलादी-खोटे गुरु
८.रचित-लिखित
९.श्रुत-वाणी,शास्त्र
१०.अभ्यास-पढना,पढ़ना,सुनना और सुनना
११.कुबोध-गृहीत मिथ्याज्ञान
१२.बहु-बहुत
१३.त्रास-दुःख
१४.ख्याति-मान-सम्मान
१५.लाभ-फायदा
१६.पूजादि-पूजा,पाठ,पूज्य बनने की छह
१७.विविध-विभिन्न प्रकार ले
१८.देह-दाह-शरीर को प्रताड़ित करने वाली
१९.कारन-करना
२०.आतम-जीव,आत्मा के स्वरुप को जाने बिना
२१.अनातम-मैं पर के ज्ञान
२२.हीन-नहीं
२३.जे-जे -जितनी भी कार्य हैं,क्रिया हैं
२४.तन-शरीर
२५.छीन-कमजोर
२६.मिथ्याचरित्र-खोटा,झूठा चरित्र,मिथ्या व्यवहार
२७.पंथ-रास्ते पे
२८.लाग-लग जा
२९.सुपाग-भलि प्रकार से लीन होना

भावार्थ
कवि कहते हैं की जो-जो पुस्तकें,किताबें,शास्त्र-एकान्तपक्ष से दूषित हैं..यानि की वास्तु के अन्य धर्मों को नकार कर सिर्फ एक धर्म पर ध्यान दिया है..और अन्य स्वाभाव को नकार दिया है..वह एकान्तवाद हैं..और जो शास्त्र एकांत-पक्ष की बातें करते हैं..वह एकांतवाद से दूषित शास्त्र,जैन धर्म अनेकान्तवाद है,वस्तु को हर दृष्टी से देखा है...तत्व दृष्टी,द्रव्य दृष्टी,शारीरिक दृष्टी..और विभिन्न रूप से देखा है..यही अनेकांत वाद है,इसे हम ऐसे समझें की"जैसे कोई गृहस्थ है,वह किसी का पति भी है,वह किसी का पिता भी है,वह किसी का बेटा भी है,वह किसी का भाई भी है...अगर सांसारिक दृष्टी से देखा जाए तोह.....अगर कोई कहे की वह गृहस्थ सिर्फ पिता है,भाई,पुत्र अन्य नहीं है,सिर्फ पिता है...यानि की यह एकान्तवाद है,और उस गृहस्थ को पिता,भाई,पुत्र अदि सब मानना अनेकान्तवाद है,जैसा की हम अन्य धर्मों में देखते हैं की"इश्वर को ही सबकुछ बताया है,ऐसा ही है,तुम ऐसे ही हो,ऐसा करोगे तोह ही तुम स्वर्ग जाओगे,ऐसा नहीं करोगे तोह ही तुम नरक जाओगे.,,ऐसा ही है,वैसा ही है" इस तरह से मानना एकान्तवाद है क्योंकि यहाँ पे वस्तु के अन्य पक्षों को नकार दिया है....अतः एकान्तवाद से दूषित शास्त्र,जिसमें विषय,कषाय,पंचेंद्रियों की चाह को पुष्ट करने वाली बातें लिखी हैं,खोटी हिंसात्मक,हिंसा में धर्म बताने वाली बातें हैं...वह सब खोटे शास्त्र हैं..,,खोटे गुरुओं द्वारा,कुगुरू,कुदेव अदि की कही हुई बातों को,शास्त्रों पढना-पढ़ना,सुनना-सुनना अग्राहित मिथ्याज्ञान है जो बहुत दुःख देने वाला है.
जितनी भी करनी हैं,क्रियाएं हैं जो ख्याति,यश,सम्मान,किसी सांसारिक लाभ,किसी सांसारिक आशा,किसी मोह,किसी डर अपनी पूजा करवाने के लिए,अपने मोह के लिए...शरीर को दुर्बल बनाने वाली,जलाने वाली,आत्मा और पर-वस्तुओं में अंतर जाने बिना,आत्मा के ज्ञान के बिना जितनी भी करनी हैं,क्रिया हैं यह सब मिथ्या हैं..और सिर्फ शरीर को कमजोर,क्षीण करने वाली हैं...न इनसे किसी कर्म की निर्जरा संभव है..न कर्मों का आश्रव रुक पाता अथवा यह सब क्रियाएं मिथ्या हैं,झूठी हैं..इन क्रियाओं को करना गृहीत मिथ्याचरित्र कहलाता है.

अब कविवर दौलत राम जी दूसरी ढाल के अंतिम श्लोक में यह अपने आप को संबोधन करते हैं की अब इन दोनों प्रकार के (गृहीत और गृहीत)मिथ्याचरित्र,मिथ्यादर्शन,और मिथ्याज्ञान को त्यागो...और अपने आत्मा की कल्याण की राह पे निकल जाओ,अब संसार में बहुत भ्रमण कर लिया,अब इस संसार रुपी जाले को त्याग दो,और हे "दौलत" अपने आत्मा स्वरुप में,निज स्वरुप में भली प्रकार से लीं हो जाओ.
(दूसरी ढाल पूरी हुई)

रचयिता-श्री दौलत राम JI

लिखने का आधार-६ ढाला क्लास्सेस-श्रीमती पुष्पा बैनाडा जी.

जा वाणी के ज्ञान से सूझे लोकालोक,सो वाणी मस्तक नमो सदा देत हूँ ढोक.































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