Friday, June 1, 2012

6 DHAALA-PAANCHVI DHAAL (INCOMPLETE)


६ ढाला

पांचवी ढाल

बारह भावना भने का कारण,भाने का अधिकारी

मुनि सकल व्रती बडभागी,भव भोगन्तैं वैरागी
वैराग्य उपावन माई,चिंतेन अनुप्रेक्षा भाई

शब्दार्थ
१.सकल व्रती-सारे व्रत,महा व्रत
२.बाद भागी-बहुत भाग्यवान और पुरुषार्थी
३.भाव-संसार
४.भोग-भौतिक सुख
५.वैरागी-विरक्त
६.वैराग्य-विरक्ति
७.माई-माँ
८.चिंतेन-चिंतन करते हैं
९.अनुप्रेक्षा-बारह भावना

भावार्थ
मुनि सकल व्रती हैं..महा व्रतों को धारण किये हुए हैं..वह बहुत भाग्यवान हैं,अतीव पुरुषार्थी हैं..जो संसार के भौतिक सुखों से विरक्त हैं...इन्द्रिय जन्य सुखों से विरक्त हैं और अस्थायी सुखों से विरक्त हैं...वह वैराग्य रुपी पुत्र  को उत्पन्नं करने के लिए बारह भावना रुपी माँ का ध्यान करते हैं..इन बारह भावनाओं को भाने से वैराग्य उत्पन्न होता है.

बारह भावना भाने के लाभ
इन चिंतत सम सुख जागे,जिमी ज्वलन पवन के लागे
जब ही जिय आतम जाने,तब ही जिय शिव सुख ठाने.

शब्दार्थ

१.इन-इन बारह भावनाओं का
२.चिंतत-चिनात्न करने
३.सम सुख-समता भाव रुपी सुख
४.जागे-धधकता है
५.जिमी-agni
६.ज्वलन-धधकती
७.लागे-हवा चलने से
८.आतम जाने-आत्मा को जानता है
९.जिय-जीव
१०.शिव सुख-निराकुल आनंद सुख
११.ठाने-प्राप्त करता है

शब्दार्थ
इन बारह भावनाओं का चिंतन करने से समता भाव रुपी सुख जाग्रत होता है..समता भाव से अर्थ है..विकल्पों में कमी का होना..वर्तमान में जीना,न आगे की चिंता..और न पीछे के विकल्प..इन बारह भवनों से समता भाव तीह्क उसी प्रकार जाग्रत होता है..जिस प्रकार हवा के चलने से अग्नि और धधक उठती है...जब तक समता भाव नहीं होगा..जब तक जीव आत्मा को नहीं जानेगा,वैरागी नहीं होगा..समता भाव के होने से जीव आत्मा को जानेगा..आत्मा के कल्याण के बारे में सोचेगा...और जब इसके बारे में सोचेगा..तोह उचित पुरुषार्थ भी करेगा..और उस पुरुषार्थ से निराकुल,आनंद सुख को प्राप्त होगा..कहने का मतलब यह है..की जब तक यह जीव भोगों से विरक्त नहीं होगा..जब तक निराकुल आनंद सुख को प्राप्त नहीं हो सकेगा.


जोवन गृह गोधन नारी,हय,गय,जन आज्ञाकारी
इन्द्रिय सुख छिनथाई,सुरधनु चपला चपलाई

शब्दार्थ
१.जोवन-जवानी
२.गृह-घर,महल
३.गो-गाय ,बैल
४.धन-धन संपत्ति
५.हय-घोड़े
६.गय-हाथी
७.जन-कुटुम्बी,परिवारी जनि
८.आज्ञाकारी-आज्ञा के अनुरूप चलने वाले नौकर
९.इन्द्रिय सुख-पांचो इंदियों के भोग
१०.छिनथाई-क्षण भंगुर हैं,अस्थायी हैं
११.सुरधनु-इन्द्रधनुष
१२.चपला-बिजली
१३.चपलाई-चंचलता के सामान

भावार्थ
१.अनित्य भावना
अनित्य भावना हमें सिखाती है...कि यह शरीर कि जवानी,घर-वार,राज्य संपत्ति,गाय-बैल,स्त्री के सुख,हाथी,घोड़े,परिवारीजन,कुटुम्बी जन..और आज्ञा को मानने वाले नौकर..और पांचो इन्द्रियों के भोग क्षण-भंगुर हैं..हमेशा नहीं रहते हैं..अनित्य हैं..अस्थायी हैं...यह सारे सुख आकुलता को देने वाले ही हैं..और दुःख को देने वाले ही हैं....यह सुख बिजली और इन्द्रधनुष कि चंचलता के सामान क्षण-भंगुर हैं..जिस प्रकार इन्द्र-धनुष और बिजली कुछ सेकंड के लिए ही आसमान में रहती हैं..उसी प्रकार यह इन्द्रिय जन्य सुख औ राज्य संपत्ति,गोधन,गृह,नारी,हाथी घोड़े थोड़े समय के लिए ही हैं...अनित्य हैं.

जिस प्रकार विवेकी जीव झूठे भोजन को खाने में,चाहे कितना भी स्वादिष्ट हो..कभी ममत्व नहीं दिखता है..उसी प्रकार इस अनित्य भावना को भाने से जीव इस संसार के झूठे भोगों से,लाखो बार भोगे हुए भोगों से कभी ममत्व नहीं करता है..और न ही इनके वियोग में अरति करता और संयोंग में रति करता है
यह अनित्य भावना भाने का फल है.

अशरण भावना का लक्षण

सुर-असुर खदापि जेते,मृग ज्यों हरीकाल दले ते.
मणि मंत्र-तंत्र बहु होई,मरतै न बचावे कोई.

शब्दार्थ

१.सुर-सुरेन्द्र
२.असुर-नागेन्द्र
३.खदापि-खगेन्द्र भी
४.जेते-जो हैं
५.मृग ज्यों-हिरन के सामान
६.हरी-सिंह
७.काल-दले-काल के आगे
८.मणि-चिंतामणि
९.तंत्र-मंत्र--तांत्रिक मंत्र,उलटे सीधे उपाय,देवी-देवता,आशीर्वाद
१०.बहु-बहुत सारे

भावार्थ


अशरण का अर्थ है कहीं भी शरण नहीं है....चाहे सुरेन्द्र,असुरेन्द्र,नागेन्द्र हों,खगेंद्र..नरेन्द्र हों....वह भी काल रुपी सिंह के सामने हिरण के सामान हैं...और उनको भी शरीर को त्याग कर...नई योनियों में सारे महल राज पाट छोड़ के जाना पड़ता है...और कर्मों का फल भोगना पड़ता है.....चाहे कैसी भी मणि हो,मंत्र हो,तंत्र हो,बड़े से बड़ी शक्ति हो,माता,पिता,देवी,देवता,सेना,औषधि,पुत्र...या कैसा भी चेतन या अचेतन पदार्थ हो...मृत्यु से कोई नहीं बचा सकता है....तथा मृत्यु से कोई नहीं बच सका है...कहीं भी शरण नहीं है.यह अशरण भावना है

इस अशरण भावना को भाने से समता भाव जागृत होता है..और इस भावना को भाने वाला जीव शरीर त्याग के समय शोक नहीं करता है..और न ही किसी अन्य के देह-अवसान में शोक करता है....और न ही संसार के भौतिक-सुखों में रति करता है

संसार भावना का लक्षण

चहुँगति दुःख जीव भरे है,परावर्तन पञ्च करे है
सब विधि संसार असारा,यामे सुख नहीं लगारा.


शब्दार्थ
१.चहुँगति -चारो गतियों के(मनुष्य गति,देव गति,तिर्यंच गति,नरक गति)
2.भरे-सहन करता है
3.परावर्तन-द्रव्य,क्षेत्र,भाव,काल और  भाव  के परिवर्तन सहता है
4.सब-हर प्रकार से
5.संसार-जगत
६.असार-बिना सार का ,बिना सुख के है
७.यामे-इस संसार में
८.सुख नहीं-सुख नहीं है
९.लगारा-थोडा सा भी

भावार्थ
यह जीव चारो गतियों में चाहे स्वर्ग हो,नरक हो,मनुष्य पर्याय हो,या तिर्यंच पर्याय हो...सब में दुःख ही दुःख भोगता है,कहीं भी इस संसार में सुख नहीं नहीं है..हर तरफ से हर दृष्टी से यह जीव चारो गतियों में दुःख भोगता है..और द्रव्य,क्षेत्र,भाव,भव और काल के परिवर्तन सहता है यानि की हर विधि से हर तरीके से संसार असार है,बिना किसी सार का है,हर जगह दुःख है..और इस संसार में कहीं भी सुख नहीं है...

सुख या दुख शरीर से बाद मे होता है पहले मन से होता है.यदि कोई कहे की हमे धन,वास्तु,संतान, के मिलने से सुख होगा तो जरा देखे धन अभी आया नही लेकिन अभी से आकुलता चालू हो गई.फिर धन प्राप्ति के लिये उध्यम करेंगे.उसमे भी आकुलता.फिर धन आगया तो उसकी रक्षा करने मे आक...ुलता,और जब चला जावेगा तो फिर दुख.इसी तरह संतान.संतान प्राप्ति के लिये उध्यम,9माह तक माता की सेवा,संतान मिल गई,उसे संसकार देने का उध्यम.और संतान कैसी निकलेगी यह भी आकुलता.इसी तरह सभी मे आकुलता रहती है तो फिर सुख कहा?यह तो मृग मरीचीका है जिसमे भटकते रहेंगे क्षणिक सुख के अलावा आकुलता का अनंत दुख.सुख तो हे ही नही.सुख तो तब हे जब आकुलता का नाश हो.ना तो लाभ से सुख ना ही हानि से दुख.देह धारि मौष्य त्रियंच को तो सुख हे ही नही.मौष्य मे मान कषाय.मान कषाय इतना की घर मे नही दाने अम्मा चली भुनाने. अब देवो को देखो.देवो मे लोभ कषाय.उन्हे ईर्षा होती है कि के मुझसे बदे देव कि इतनी प्रभुता क्यो?मुझ पर आदेश चलाता?क्या मे उसका गुलाम हू?और जीवन एसे ही निकल जाता.6 माह रहते हे तो उन्हे पता चलता कि जो भी सुख भोग रहे,वह छिनने वाला है.इससे क्षोभ दुख होता है और फिर वही एक इंद्री जीव बनते.त्रियंच मे कपट होता हे.अपनी रोती को छोड कुत्ता दुसरे की रोटी पर झपटता है.पालतु पशु को यह सुख हे कि उसे भोजन मिलेगा ही पर कब?पानी के पीने के लिये बंधा हुआ है क्या करे?कब मालिक उसे कसाई घर मे बेच देगा.और नारकी मे क्रोध कशाय,वह अपने पिछले जन्म के दुश्मन को देख क्रोध मे उबल जाता.नारकी को तो दुख ही दुख.और निगोद मे जन्म हुआ और मौत का इंतज़ार. पर्यायो मे सुख कही नही है.सुख प्राप्त करने के लिये निराकुल होना जरूरी हे.और सम्यक दृष्टि जीव ही निराकुल होकर सुख भोगता है
ऐसा चिंतन करना संसार भावना का लक्षण है.

इस भावना को भाने वाला जीव कभी भी दुखी नहीं होता है..लेकिन संसार से उदासीन रहता है...वैरागी रहता है

एकत्व भावना का लक्षण


शुभ अशुभ कर्म फल जेते,भोगे,जिय एकहिं तेते
सुत दारा होय न सीरी,सब स्वारथ के हैं भीरी

शब्दार्थ
१.शुभ अशुभ कर्म फल-शुभ और अशुभ कर्मों के फल
२.जेते-जो हैं
३.जिय-जीव
४.एकहिं-अकेला
५.तेते-उन्हें
६.सुत-पुत्र
७.दारा-स्त्री
८.सीरी-हिस्सेदार
९.स्वारथ-मतलब के
१०.भीरी-सगे हो जाते हैं.

भावार्थ
४.एकत्व भावना

सारे शुभ और अशुभ कर्मों के फल जितने भी हैं..यह जीव अकेला हो भोगता है..कोई साथ न देने वाला होता है...माता,पिता,पुत्र,नारी,दोस्त,रिश्तेदार अपनी कोई रिश्तेदारी नहीं निभाते हैं....सिर्फ स्वार्थ के लिए सगे बन जाते हैं...और स्वार्थ ख़त्म होने पर धोका दे जाते हैं...चाहे सुख हो या दुःख यह जीव अकेला ही सहन करता है...साथी-सगे तोह सब कहने मात्र के हैं.
अन्यत्व भावना का लक्षण
जल पय ज्यों जिय तन मेला,पै भिन्न-भिन्न नहीं भेला
तोह प्रकट जुदे धन-धामा,क्यों हैं एक मिल सुत रामा
शब्दार्थ
१.जल-पय सम-दूध और पानी के सामान
२.जिय-तन-जीव और तन
३.मेला-मिलन हुआ है
४.पै-तोह भी
५.भिन्न-भिन्न-अलग-अलग हैं.
६.नहीं भेला-एक रूप नहीं है
७.प्रकट-साफ़ रूप से अलग दिखने वाले
८.धन-धामा-पैसा,घर,मकान
९.एक मिल-मेरे कैसे हैं
१०.रामा-स्त्री
११.सुत-पुत्र
भावार्थ
५.अन्यत्व भावना

यह जीव और शरीर ,पानी और दूध के सामान एक दुसरे से मिले हुए हैं...लेकिन फिर भी दोनों-दोनों भिन्न-भिन्न हैं.एक नहीं हैं..अगर शरीर और आत्मा एक ही होती तोह क्या मुर्दे में जान नहीं होती,फिर ऐसा क्यों होता है कि आत्मे के शरीर से निकलते ही..सारा शरीर ऐसे ही पड़ा रह जाता है,कहाँ चली जाती है उसमें से चेतनता..यानि कि हम जीव हैं,शरीर नहीं हैं...जब शरीर और आत्मा अलग हैं तब जो पर-वस्तुएं,भौतिक वस्तुएं हैं..धन,घर,परिवार है राज्य है,सम्पदा है,पुत्र है,स्त्री है..वह मेरी कैसे हो सकती है...ऐसा चिंतन करना अन्यत्व भावना है

अशुचि भावना का lakshan
पल-रुधिर-राध-मल-थैली,कीकस,वसादी से मैली
नव द्वार बहै घिनकारी,असि देह करै किम यारी .
शब्दार्थ
१.पल-मांस
२.रुधिर-खून
३.राध-पीप
४.मल-विष्ट,गंध्गी
५.कीकस-हड्डी
६.वसादी-चर्बी अदि से
७.मैली-मलिन
८.नव द्वार-शारीर में नौ जगहों से
९.घिन्कार-बदबू आती रहती है
१०.असि-ऐसी
११.देह-शारीर
१२.किम-कैसे
१३.यारी-मोह,प्यार,ममता,राग
भावार्थ

६.अशुचि भावना
यह शरीर मांस,खून,पीप,विष्ट,गंध्गी,मल,मूत्र,पसीना..अदि कि थैली है..और हड्डी,चर्बी अदि अपवित्र पदार्थों से मलिन है...और इस शरीर में से नौ द्वार में से निरंतर मैल निकलता रहता है...और इतना ही नहीं इस शरीर के स्पर्श से पवित्र पदार्थ भी अपवित्र हो जाते हैं...बहुत गंध है यह शरीर..और ऐसे शरीर से कौन प्रेम करना चाहेगा,कौन मोह रखना चाहेगा...ऐसा चिंतन करना अशुचि भावना है.

आश्रव भावना का लक्षण

जो योगं की चपलाई,ताते है आश्रव भाई

आश्रव दुखकार घनेरे,बुधिजन तिन्हे निरवेरे


शब्दार्थ

१.योग-मन वचन और काय का योग

२.चपलाई-चंचलता

३.ताते-इससे

४.आश्रव-कर्मों का आना

५.भाई-हे भव्य जीव

६.घनेरे-बहुत ज्यादा दुखदायी है

७.बुधिजन-ज्ञानी लोग,समझदार log

८.तिन्हे-आश्रव को

९.निरवेरे -दूर रहते हैं,त्याग करते हैं

भावार्थ


७.आश्रव भावना
मन-वचन और काय के निमित्त से आत्मा mein हलन-चलन-कम्पन रूप चंचलता को आश्रव कहते हैं..आश्रव से कर्म आते हैं..यह आश्रव बहुत दुःख दाई है..क्योंकि इसकी वजह से आत्मा के प्रदेश कर्मों से बंधते हैं..जिससे आत्मा का अनंत सुख वाला स्वाभाव ढक जाता है,ज्ञान दर्शन स्वाभाव ढक जाता है..इसलिए बुद्धिमान पुरुष इस आश्रव से दूर रहने के प्रयत्न में लगे रहते हैं..इससे मुक्त होने की चाह रखते हैं..मिथ्यादर्शन,अविरत और कषाय और प्रमाद के साथ आत्मा में परवर्ती नहीं करते हैं..और कम करते हैं.ऐसा चिंतन करना आश्रव भावना है.

संवर भावना के लक्षण


जिन पुण्य पाप नहीं कीना,आतम अनुभव चित दीना,

तिन्ही विधि आवत रोके,संवर लाही सुख अवलोके


शब्दार्थ

१.जिन-जिन्होंने

२.पुण्य-शुभ भाव,शुभ के फल में रति,शुभ कर्म

३.पाप-अशुभ भाव,अशुभ के फल में आरती,अशुभ कर्म

४.नहीं कीना-नहीं किया

५.आतम-आत्मा स्वरुप

६.चित-मन

७.दीना-लगाया

८.तिन्ही-उन्होंने

९.विधि-कर्मों

१०.आवत-आने से

११.रोके-रोक लिया

१२.संवर लाही-संवर को प्राप्त करके

१३.अवलोके-साक्षात्कार किया,प्राप्त किया


भावार्थ


८.संवर भावना

जिन्होंने पुण्य और पाप नहीं किया,शुभ और अशुभ कर्मों के फल में रति और अरति नहीं कि..शुभ और अशुभ भाव नहीं किये....और आत्मा के अनुभव में मन को लगाया..आत्मा स्वाभाव में लीं हुए..या लीं होने..वह आते हुए कर्मों को आत्मा के प्रदेशों में मिल जाने से रोक लेंगे..कर्मों के आश्रव द्वार को बंद करेंगे,बंध को रोक लेंगे...और संवर को प्राप्त करके आकुलता रहित सुख का साक्षात्कार करेंगे..ऐसी भावना भाना संवर भावना है.

लोक भावना का लक्षण

किमहूँ न करै को,न धरै को,षटद्रव्यमयी न हरै को

सो लोक माहीं बिन समता दुःख सहे जीव नित भ्रमता


शब्दार्थ-

१.किमहू-कोई भी

२.न-नहीं

३.करै को-बनाया है

४.धरै को-न ही धारण किये है,चला रहा है

५.षट द्रव्यमयी-षट द्रव्यों से बनी है..जो शास्वत है

६.न हरै-अनश्वर है

७.सो-उस लोक

८.माहीं-में

९.समता-संतोष और वीतराग भावों के

१०.सहे-सहता है

११.नित-हमेशा

१२.भ्रमता-भटकता है.


भावार्थ

१०.लोक भावना
जहाँ ६ द्रव्यों का निवास है,वह तीन लोक हैं..जो शास्वत ६ द्रव्यों से बना हुआ है..इसको न किसी ने बनाया है..न कोई धारण कर रहा है,न कोई चला रहा है..और न ही कभी नष्ट होंगे..और ६ द्रव्य भी शास्वत हैं..अनादि निधन हैं यह तीनों लोक ..इन तीनों लोकों में यह जीव समता भाव के अभाव में..संतोष के अभाव में,वीतरागता और वीतराग भावों के अभाव में यह जीव संसार में दुःख सहता है...और जन्म मरण के दुखों को सहन करता है...वीतराग अवस्था पाने से यह जीव आकुलता रहित सुख को प्राप्त करता है

बोधि दुर्लभ भावना का लक्षण


अंतिम ग्रीवकलों की हद,पायो अनंत बिरियाँ पद

पर सम्यक ज्ञान न लाधो,दुर्लभ निज में मुनि साधो.


शब्दार्थ

१.अंतिम ग्रीवकलों-नवमे ग्रैवेयक

२.हद-तक की सीमा तक

३.अनंत-बहुत बार

४.बिरियाँ-अनेकों बार

५.पद-अहमिन्द्रों,अदि के पद पाए

६.पर-लेकिन

७.सम्यक ज्ञान-सच्चा ज्ञान या भेद विज्ञान

८.लाधो-नहीं प्राप्त किया

९.दुर्लभ-बहुत दुर्लभ है

१०.निज में-आत्मा में ही

११.मुनि-मुनियों ने सच्चे गुरुओं ने सकल चरित्र को धारण करने वाले मुनियों ने

१२.साधो-साधा है,खोजा है.


भावार्थ

इस जीव ने नवमें ग्रैवेयक के विमानों तक ..जो सोलह स्वर्गों से भी ऊपर हैं..वहां भी पर्याय ली..और एक बार नहीं अनंत बार यहाँ पर्याय ले कर अह्मिन्द्र,अदि देवों तक का पद पाया...लेकिन जब भी आत्मा के ज्ञान के बिना इस जीव ने सुख लेश मात्र नहीं पायो..नरक,त्रियंच मनुष्य की योनियों में दुःख की बात करें तोह चलता है..लेकिन स्वर्गों में भी यह जीव दुखी रहा..और वहां भी लेश मात्र भी सुख ग्रहण नहीं किया...जो की सम्यक ज्ञान के अभाव की वजह से था...और ऐसे दुर्लभ सम्यक ज्ञान को मुनिराज ने अपने ही आत्मा स्वरुप में साधा हुआ..कहीं बाहार से नहीं खोजा है..इसलिए संसार में सबकुछ सुलभ है,घर,परिवार,कुटुंब,उत्तम कुल, विद्या, धन ,पैसा,बुद्धि,होसियारी...यह सब सम्यक ज्ञान की दुर्लभता के आगे सुलभ ही हैं..और यह सम्यक ज्ञान अपार सुख को प्राप्त करने वाला है .आकुलता रहित सुख को प्राप्त करता है.कर्मों का जोड़ इस सम्यक ज्ञान रुपी छैनी के द्वारा ही तोडा जाता है.

धर्म भावना का लक्षण

जो भाव मोह्तैं न्यारे,दृग-ज्ञान-व्रतादिक सारे

सो धर्म जवै जिय धारे,सोई सुख अचल निहारे


शब्दार्थ

१.मोह्तैं-मोह से,मिथ्यात्व से.

२.न्यारे-नहीं है

३.दृग-सम्यकदर्शन

४.ज्ञान-सम्यक ज्ञान

५.व्रतादिक-सच्चा चरित्र

६.सो धर्म-मोह रहित ऐसे धर्म को

७.जवै-जब

८.धारे-धारण करता है

९.सोई-तब

१०.अचल-आकुलता रहित,निराकुल आनंद सुख

११.निहारे-प्राप्त करता है


भावार्थ

12.धर्म भावना
जो भाव पवित्र हैं और मोह से रहित हैं..मिथ्यात्व(गृहीत और अग्रहित) से रहित हैं.वह सम्यक ज्ञान,सम्यक दर्शन और सम्यक चरित्र हैं और यह ही धर्म है..जब इस धर्म को जब यह जीव साधता है..धारण करता है..तोह अचल सुख को प्राप्त प्राप्त करता है..यानि की जहाँ मोह-मिथ्यात्व है वहां धर्म नहीं है...ऐसा चिंतन करना धर्म भावना है


मुनि धर्म सुनने की प्रेरणा


सो धर्म मुनिन करी धरिये,तिनकी करतूति उचरिये

सो धर्म सुनिए भवि प्राणी,अपनी अनुभूति पहचानी


शब्दार्थ

.सो-उस धर्म को,मिथ्यात्व और मोह से रहित धर्म को

२.मुनिन-मुनियों ने

३.धरिये-धारण किया है

४.करतूति-कर्तव्यों को

५.उचरिये-उच्चारण कर रहे हैं

६.सो धर्म-उस धर्म को

७.भवि-भव्य जीव

८.अनुभूति-आत्मा की अनुभूति

९.पहचानी-पहचानो.


भावार्थ


जो धर्म भावना में धर्म बताया गया है,जो मोह से मिथ्यात्व से रहित है...ऐसे उत्तम धर्म को मुनियों ने धारण कियाहुआ..जिसे सकल देश चरित्र कहते हैं...ऐसे सकल देश चरित्र के अंतर्गत जो मुनियों के कर्तव्य बताये गए हैं..उसको अगली ढाला में बता रहे हैं..हे भव्य जीवो उन मुनियों के द्वारा धारण धर्म को सुनो...और अपनी आत्मा की अनुभूति करो,अपने ज्ञान दर्शन स्वाभाव को पहचानो.

(पांचवी ढाल पूरी हुई)


रचयिता-कविवर श्री दौलत राम जी

लिखने का आधार-स्वाध्याय(६ ढाला,संपादक-पंडित श्री रत्न लाल बैनाडा जी,डॉ शीतल चंद जैन)


जा वाणी के ज्ञान से सूझे लोकालोक,सो वाणी मस्तक नमो सदा देत हूँ ढोक.

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